SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -- 长长长长长长 ******** श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-३२ ----- - -- * होता; इसलिये यह सब जान समझकर अज्ञान का उन्मूलन कर ज्ञानी होकर भी नहीं कर सकते । प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने कारण से अपनी पर्याय धारण * संसार रूपी वृक्ष को छोड़कर मुक्ति प्राप्त करें, ज्ञानी केवलज्ञानी परमात्मा बनें। करता है। विकारी अवस्था के समय परद्रव्य निमित्त रूप अर्थात् उपस्थित तो प्रश्न - ज्ञानी पंडित की परिभाषा तथा पहिचान क्या है? होता है किंतु वह किसी अन्य द्रव्य में कुछ भी नहीं कर सकता। इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघुत्व नामक गुण है इसलिये वह द्रव्य अन्य रूप पण्डिय विवेय सुद्ध, विन्यानं न्यान सुख उवएस । नहीं होता, एक गुण दूसरे गुण रूप नहीं होता और एक पर्याय दूसरी पर्याय रूप संसार सरनि तिक्तं, कम्मषय ममल मुक्ति गमनं च ॥३२॥ नहीं होती। एक द्रव्य के गुण या पर्याय उस द्रव्य से पृथक् नहीं हो सकते। इस अन्वयार्थ - (पण्डिय) पंडित ज्ञानी वही है (विवेय सुद्ध) जिसका विवेक प्रकार जो अपने क्षेत्र से अलग नहीं हो सकते और परद्रव्य में नहीं जा सकते तब शुद्ध हो अर्थात् विवेक का जागरण हो गया (विन्यानं) भेदविज्ञान के द्वारा (न्यान ॐ फिर वे पर का क्या कर सकते हैं? कुछ भी नहीं। एक द्रव्य, गुण या पर्याय दूसरे सुद्ध) शुद्ध आत्मज्ञान का (उवएस) उपदेश करता है, कहता है (संसार सरनि द्रव्य की पर्याय में कारण नहीं होते, इसी प्रकार वे दूसरे का कार्य भी नहीं होते। तिक्तं) जो संसार परिभ्रमण छोड़ता है, संसार चक्र से छूट गया (कम्म षय) कर्मों ॐ ऐसी अकारण कार्यत्व शक्ति प्रत्येक द्रव्य में विद्यमान है, इस प्रकार समझ लेने पर का क्षय कर (ममल) ममल स्वभाव की साधना कर (मुक्ति गमनं च) मुक्ति को कारण विपरीतता दूर हो जाती है। प्राप्त करता है। २. प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, जीवद्रव्य चेतना गुण स्वरूप है, पुद्गल द्रव्य विशेषार्थ - "सदसद् विवेक बुद्धिः विद्यते यस्य स पंडित:" जिसके स्पर्श, रस, गंध और वर्ण स्वरूप है। जब तक जीव ऐसी विपरीत पकड़ बनाये सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्मा को परखने की बुद्धि हो वही पंडित है जो रहता है कि मैं पर का कुछ कर सकता हूँ और पर मेरा कुछ कर सकता है तथा भेदविज्ञान मयी शुद्ध आत्मज्ञान का उपदेश करता है। जो संसार परिभ्रमण से शुभ विकल्प से लाभ होता है, तब तक उसकी अज्ञान रूप पर्याय बनी रहती है। छूटने के लिये ममल स्वभाव की साधना से कर्मों को क्षय कर मुक्ति मार्ग पर चलता जब जीव यथार्थ को समझता है अर्थात् सत् को समझता है तब यथार्थ मान्यता है वही पंडित ज्ञानी है। पूर्वक उसे सच्चा ज्ञान होता है। उसके परिणाम स्वरूप क्रमश: शुद्धता बढ़कर मिथ्यादृष्टि जीव सत्-असत् का विवेक (भेदज्ञान) नहीं जानता, जहाँ संपूर्ण वीतरागता प्रगट होती है। अन्य चार द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश और काल सत् और असत् के भेद का अज्ञान होता है, आत्मा-अनात्मा का विवेक नहीं अरूपी हैं, उनकी कभी अशुद्ध अवस्था नहीं होती, इस प्रकार समझ लेने पर होता वहाँ अज्ञान के कारण जीव जैसा अपने को ठीक लगता है वैसा पागल या स्वरूप विपरीतता दूर हो जाती है। शराबी की भांति मिथ्या कल्पनायें किया करता है, इसी से अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ३. परद्रव्य, जड़कर्म और शरीर से जीव त्रिकाल भिन्न है । जब वे एक कहलाता है। क्षेत्रावगाह संबंध से रहते हैं, तब भी जीव के साथ एक नहीं हो सकते, एक द्रव्य पंडित वह है जिसका विवेक शुद्ध हो गया, जाग गया, जो भेदविज्ञान के, द्रव्य क्षेत्र काल भाव दूसरे द्रव्य में नास्ति रूप हैं क्योंकि दूसरे द्रव्य से वह पूर्वक स्व-पर का यथार्थ निर्णय करता है, जिसने सत्-असत्, आत्मा-अनात्मा द्रव्य चारों प्रकार से भिन्न है। प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपने गुण से अभिन्न है क्योंकि को जान लिया है जिसे सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक्ज्ञान हो गया, वह पंडित ज्ञानी गुण से द्रव्य कभी पृथक् नहीं हो सकता । पुद्गल से तो जीव भिन्न है ही तथापि * है। जो ज्ञान विज्ञान मयी शुद्धात्मा का उपदेश करता है तथा स्वयं आत्मा को एक जीव से दूसरा जीव भी अत्यंत भिन्न है इस प्रकार समझ लेने पर भेदाभेद *परम शुद्ध अनुभव करके मोक्षमार्ग पर चलता हुआ व संसार मार्ग से हटा हुआ विपरीतता दूर हो जाती है। शनै:-शनै: कर्मों को क्षय करके मुक्त हो जाता है। ___ सत् - त्रिकाल टिकने वाला सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, निश्चय, शुद्ध यह सत्-असत् का निर्णय सब एकार्थ वाचक शब्द हैं। जीव का ज्ञायक भाव ज्ञान स्वभाव त्रैकालिक अखंड १. एक द्रव्य उसके गुण या पर्याय, दूसरे द्रव्य उसके गुण या पर्याय में कुछ ... है इसलिये वह सत् है। इस दृष्टि को द्रव्य दृष्टि, शुद्ध दृष्टि, तत्त्व दृष्टि कहते हैं। ४६ *** * * * ** 器卷器装器 卷层层剖层, 各层
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy