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गाथा-३१
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章帝些宁中宗
HHHH*** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * दिशाओं का ज्ञान होता है (च) ऐसी (ममल न्यानं च) ममल केवलज्ञान स्वभाव * की महिमा, विशेषता है।
विशेषार्थ-परम पारिणामिक भाव में रहने से केवलज्ञान प्रगट होता है। अड़तालीस मिनिट एक मुहूर्त का शुद्धोपयोग अर्थात् उपयोग का धारावाही अपने अक्षय अविनाशी शुद्ध विमल स्वभाव में रत रहने से एक मुहूर्त में केवलज्ञान का प्रकाश हो जाता है। भेदविज्ञान के द्वारा निर्मल आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके जब साधक शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है तब इसी के दृढ अभ्यास से केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। इस ज्ञान के द्वारा अविनाशी आत्मतत्त्व बिल्कुल प्रत्यक्ष स्पष्ट झलकता है।
केवलज्ञान की एक समय की पर्याय में तीन लोक तीन काल के समस्त द्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती पर्याय प्रत्यक्ष झलकती हैं। केवलज्ञानी परमात्मा अपने परमानंद में लीन रहते हैं यही केवलज्ञान की विशेषता है।
निज स्वभाव रूपी साधन के द्वारा ही परमात्मा हुआ जाता है। गृहस्थ अवस्था में परमात्मदशा प्राप्त नहीं होती, ज्ञानानंद स्वभाव के साधन द्वारा दिव्यशक्ति प्रगट होने पर केवलज्ञान होता है। जिनकी दशा जीवन्मुक्त हुई है वे केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा शरीर में रहते हुए भी पूर्ण परमात्मा अरिहन्त देव हैं। उनके चार घातिया कर्मों का अभाव हो गया है व अंतर समाहित निज अनंत शक्ति प्रगट हुई है, वे तीन काल व तीनलोक को एक समय में प्रत्यक्ष जानते हैं। केवलज्ञान का विषय संबंध सर्वद्रव्य और उनकी सर्व पर्यायें हैं अर्थात् केवलज्ञान एक ही साथ अपने को तथा सभी पदार्थों को और उनकी सभी पर्यायों को जानता है। ___घातिकर्म का नाश तथा केवलज्ञान का प्रकाश होने पर अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य, यह अनंत चतुष्टय प्रगट होते हैं। इसमें अंत: करण चतुष्टय मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार विला जाते हैं। वहाँ अनंत दर्शन
ज्ञान से तो छह द्रव्यों से भरपूर जो यह लोक है, जिसमें जीव अनंतानंत और * पुद्गल उनसे भी अनन्तगुने हैं और धर्म, अधर्म, आकाश यह तीन द्रव्य
एक-एक एवं असंख्य काल द्रव्य हैं। उन सर्व द्रव्यों की भूत भविष्य वर्तमान काल
संबंधी अनंत पर्यायों को भिन्न-भिन्न एक समय में देखते और जानते हैं तथा * अनंत वीर्य द्वारा अपने अनंत सुख स्वभाव में निमग्न रहते हैं। केवली भगवान को
ज्ञानाज्ञान नहीं होता अर्थात् उन्हें किसी विषय में ज्ञान और किसी विषय में अज्ञान ***** * * ***
नहीं होता किन्तु सर्वत्र ज्ञान ही ज्ञान वर्तता है।
एक जीव के एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं. यदि एक ज्ञान हो तो केवलज्ञान होता है, दो हों तो मति और श्रुत होते हैं, तीन हों तो मति, श्रुत, अवधि अथवा मन: पर्यय होते हैं। चार हों तो मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय ज्ञान होते हैं। एक ही साथ पांच ज्ञान किसी को नहीं होते क्योंकि चार ज्ञान कर्मोदय जन्य पर्यायें हैं, केवलज्ञान स्वभाव है और एक ही ज्ञान एक समय में उपयोग रूप होता है। केवलज्ञान होने पर वह सदा के लिये बना रहता है, दूसरे ज्ञानों का उपयोग अधिक से अधिक अंतर्मुहूर्त होता है उससे अधिक नहीं होता उसके बाद ज्ञान के उपयोग का विषय बदल ही जाता है। केवली के अतिरिक्त सभी संसारी जीवों को कम से कम दो अर्थात् मति श्रुत ज्ञान अवश्य होते हैं।
आत्मा वास्तव में परमार्थ है और वह ज्ञान है, आत्मा स्वयं एक ही पदार्थ है इसलिये ज्ञान भी एक ही पद है और यह परमार्थ स्वरूप साक्षात् मोक्ष का उपाय है। इन गाथाओं में ज्ञान के जो भेद कहे हैं, वे इस एक पद-ज्ञान स्वभाव का अभिनंदन करते हैं। ज्ञान के हीनाधिक रूप भेद उसके सामान्य ज्ञान स्वभाव को नहीं भेदते किंतु अभिनंदन करते हैं; इसलिये जिसमें समस्त भेदों का अभाव है ऐसे आत्म स्वभाव भूत ज्ञान का ही आलम्बन करना चाहिये अर्थात् ज्ञान स्वरूप आत्मा का ही अवलंबन करना चाहिये।
ज्ञान स्वरूप आत्मा के आलम्बन की ऐसी महिमा है, जिससे- १. निजपद की प्राप्ति होती है। २. भ्रांति का नाश होता है। ३. आत्मा का लाभ होता है। ४. आत्मा का परिहार सिद्ध होता है। ५. भाव कर्म बलवान नहीं हो सकता। ६. राग-द्वेष, मोह उत्पन्न नहीं होते । ७. पुन: कर्म का आश्रव नहीं होता। ८. पुन: कर्म नहीं बंधता। ९. पूर्व बद्ध कर्म भोगा जाने पर निर्जरित हो जाता है। १०. समस्त कर्मों का अभाव होने से साक्षात् मोक्ष होता है।
प्रश्न-जब एक शान स्वभाव आत्मा ही इह आराध्य है, केवलज्ञान स्वभावी है फिर यह भेद करने की, इतना फैलाव फैलाने की क्या आवश्यकता है?
समाधान - मूल में तो एक केवलज्ञान स्वभावी आत्मा ही है परंतु अज्ञान जनित कर्म संयोग होने से यह संसार वृक्ष का फैलाव फैला ही हुआ है। मूल का लक्ष्य रखकर इस सब फैलाव भेद भिन्नता को समझना, समझकर उससे हट जाना ही ज्ञानीपन है क्योंकि इन सबको जाने बिना भी ज्ञान का परिमार्जन नहीं
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卷层层剖法》答者:
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