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******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
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क्षयोपशम का अर्थ१. सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय।
२. देशघाती स्पर्द्धकों में गुण का सर्वथा घात करने की शक्ति का उपशम वह क्षयोपशम कहलाता है।
गुण प्रत्यय अवधिज्ञान- सम्यक्दर्शन, देशव्रत अथवा महाव्रत के निमित्त से होता है तथापि वह सभी सम्यकदृष्टि, देशव्रती या महाव्रती जीवों के नहीं होता किन्तु सम्यक्दृष्टि जीवों में से बहुत थोड़े से जीवों को अवधिज्ञान होता है।
जीव के पांच भाव में से औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक यह तीन भाव ही अवधिज्ञान के विषय हैं और जीव के शेष क्षायिक तथा पारिणामिक भाव और धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य तथा कालद्रव्य अरूपी पदार्थ हैं वे अवधिज्ञान के विषयभूत नहीं होते। यह ज्ञान सब रूपी पदार्थों और उनकी कुछ पर्यायों को जानता है। क्षेत्र (सीमा) असंख्यात लोक प्रमाण तक है।
अवधिज्ञान के भेदों का स्वरूप जानकर भेदों की ओर से राग को दूर करके अभेद ज्ञान स्वरूप अपने स्वभाव की ओर उन्मुख होना चाहिये।
४. मन: पर्यय ज्ञान - मन: पर्यय ज्ञान २ प्रकार का होता है- १. ऋजुमति, २. विपुलमति।
दूसरे के मनोगत मूर्तीक द्रव्यों को मन के साथ जो प्रत्यक्ष जानता है वह मन: पर्यय ज्ञान है।
ऋजुमति - मन में चिंतित पदार्थ को जानता है, अचिंतित पदार्थ को नहीं और वह भी सरल रूप से चिंतित पदार्थ को जानता है।
विपुलमति-चिंतित और अचिंतित पदार्थ को तथा वक्र चिंतित और अवक्र चिंतित पदार्थ को भी जानता है।
मन: पर्ययज्ञान विशिष्ट संयमधारी को होता है। विपुलमति ज्ञान में ऋजु और वक्र सर्व प्रकार के रूपी पदार्थों का ज्ञान होता है। अपने तथा दूसरों के । जीवन-मरण, सुख-दु:ख, लाभ-अलाभ इत्यादि का भी ज्ञान होता है।
मन में स्थित गुप्त भावों का उसकी भावना सहित प्रत्यक्ष ज्ञान होना, * जैसे- एक मनुष्य वर्तमान में क्या विचार कर रहा है, उसके साथ उसने भूतकाल
में क्या विचार किया था और भविष्य में क्या विचार करेगा, इस ज्ञान का मनोगत * विकल्प मन: पर्यय ज्ञान का विषय है।
द्रव्यापेक्षा से मनः पर्यय ज्ञान का विषय - जघन्य रूप से एक समय में ***** * * ***
गाथा-३१ ----- - -- - होने वाले औदारिक शरीर के निर्जरा रूप द्रव्य तक जान सकता है। उत्कृष्ट रूप से आठ कर्मों के एक समय में बंधे हुए समय प्रबद्ध रूप द्रव्य के अनन्त भागों में से एक भाग तक जान सकता है।
क्षेत्र अपेक्षा - जघन्य रूप से दो, तीन कोस तक के क्षेत्र को जानता है, उत्कृष्ट रूप से मनुष्य क्षेत्र के भीतर जान सकता है।
काल अपेक्षा - जघन्य रूप से दो तीन भवों का ग्रहण करता है, उत्कृष्ट रूप से असंख्यात भवों का ग्रहण करता है।
भाव अपेक्षा - द्रव्य प्रमाण से कहे गये द्रव्यों की शक्ति (भावों) को जानता है।
ऋजुमति ज्ञान होकर छूट भी जाता है. संयम परिणाम का घटना, उसकी हानि होना प्रतिपात है जो कि किसी ऋजुमति वाले को होता है।
विपुलमति विशुद्ध शुद्ध ज्ञान है, वह छूटता नहीं है, केवलज्ञान होने तक बना रहता है। इस ज्ञान की उत्पत्ति आत्मा की शुद्धि से होती है। इस ज्ञान के द्वारा स्व तथा पर दोनों के मन में स्थित रूपी पदार्थ जाने जा सकते हैं।
मन: पर्ययज्ञान उत्तम ऋद्धिधारी भाव मुनियों के ही होता है। गणधर चार ज्ञान के धारी होते हैं। अवधिज्ञान चारों गतियों के सैनी जीवों को होता है।
उत्कृष्ट अवधिज्ञान का क्षेत्र असंख्यात लोक प्रमाण तक है और मन: पर्यय ज्ञान का ढाई द्वीप मनुष्य क्षेत्र है।
अवधिज्ञान का विषय परमाणु पर्यंत रूपी पदार्थ है और मन: पर्यय ज्ञान का विषय मनोगत विकल्प है।
यह भेदों का स्वरूप जानकर, भेदों का लक्ष्य छोड़कर, शुद्धनय के विषय भूत अभेद अखंड ज्ञान स्वरूप आत्मा की ओर अपना लक्ष्य करना।
आगे केवलज्ञान की विशेषता बतलाने वाली गाथा कहते हैंकेवल भाव संजुत्तं, विमल सहावेन अभ्यरं सुद्ध। न्यानेन न्यान विमलं, दिसि विन्यानं च ममल न्यानं च॥३१॥
अन्वयार्थ - (केवल भाव) केवलज्ञान स्वरूप परम पारिणामिक भाव में (संजुत्तं) संयुक्त होना, लीन होना, प्रकाश होना (विमल सहावेन) विमल स्वभाव से, समस्त कर्म मलादि दोषों से रहित (अध्यरं सुद्ध) अक्षय अविनाशी शुद्ध पद प्रगट होता है (न्यानेन न्यान) ज्ञान से ज्ञान, आत्मज्ञान से केवलज्ञान (विमलं) निर्मल, शुद्ध, मल रहित होता है (दिसि विन्यानं) विज्ञानमयी स्वभाव में सब
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