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गाथा-३०
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*-*-*--* श्री उपदेश शुद्ध सार जी यह सब पांच इंद्रिय और मन के द्वारा होता है - ४८४६ % २८८
व्यंजनावग्रह चार इंद्रियों के द्वारा होता है, नेत्र और मन से नहीं होता * इसलिये उसके बहु, बहुविध आदि बारह भेद होने पर १२४४:४८ भेद हो जाते * हैं। इस प्रकार मतिज्ञान के २८८ + ४८ : ३६६ भेद होते हैं। (विशेषता से जानने के लिये तत्वार्थ सूत्र ग्रंथ देखें)
२. श्रुतज्ञान - श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है, श्रुतज्ञान के दो, अनेक और बारह भेद होते हैं।
१. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५. व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग, ६. ज्ञातृधर्म कथांग, ७. उपासकाध्ययनअंग, ८. अंत: कृत दशांग, ९. अनुत्तरौपपादिकांग, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाक सूत्रांग, १२. दृष्टि प्रवादांग।
यह द्वादशांग वाणी जिनवाणी कहलाती है, इसके ग्यारह अंग और चौदह पूर्व भी कहे जाते हैं, जिसके पूर्ण ज्ञाता गणधर या श्रुतकेवली होते हैं। ग्यारह अंग नौ पूर्व तक का ज्ञान सामान्य सब जीवों को हो सकता है इसलिये श्री तारण स्वामी ने गाथा में ग्यारह अंग कहे हैं।
जीव को सम्यकदर्शन होते ही सम्यक्मति और सम्यक् श्रुतज्ञान होता है। यह जो सम्यक्मति और श्रुतज्ञान के भेद दिये गये हैं। यह ज्ञान की विशेष निर्मलता होने के लिये दिये गये हैं। इन भेदों में अटक कर राग में लगे रहने के लिये नहीं हैं। यह तो सब अपने आप क्रमशः वृद्धिगत होते हैं। इनका स्वरूप जानकर अपने त्रैकालिक अखंड, अभेद चैतन्य स्वभाव की ओर उन्मुख होकर निर्विकल्प होने की आवश्यकता है। ज्ञान स्वभाव की साधना से यह अपने आप प्रगट होते हैं।
आगे अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान की विशेषता के लिये गाथा कहते हैं - अवहि उवनं भावं, दिसि संजोय अभ्यरं जोयं । मन पर्जय संजुत्तं, रिजु विपुलं च अभ्यरं दिसिमो॥३०॥
अन्वयार्थ-(अवहि) अवधिज्ञान (उर्वन) प्रगट होना, प्रकाश होना (भाव) * भाव (दिसि) दिशातक (संजोय) संयोग (अष्यरं) अक्षय अविनाशी (जोयं) देखता
है (मन पर्जय) मनः पर्यय ज्ञान (संजुत्तं) संयुक्त होना, अनुभव होना (रिजु) स्जुिमति (विपुलं) विपुलमति (च) और (अष्यरं) अक्षर अविनाशी (दिसिमो) दिशाओं तक देखता जानता है।
विशेषार्थ- अवधिज्ञान का प्रगटपना अपने अविनाशी ज्ञान स्वभाव की साधना से होता है। यह सीमित काल भाव और दिशाओं तक होता है। मन:पर्यय ज्ञान रिजुमति विपुलमति के भेद से दो प्रकार का होता है, यह अपने अक्षय, अविनाशी, शुद्ध स्वभाव की लीनता वाले संयमी जीव को होता है, यह भी विशेष सीमा तक देखता जानता है।
३. अवधिज्ञान - अवधिज्ञान के दो भेद हैं - १. भव प्रत्यय, २. गुण प्रत्यय।
भव प्रत्यय अवधिज्ञान देव नारकियों को होता है तथा तीर्थकरों के गृहस्थ दशा में होता है। भव प्रत्यय अवधिज्ञान में सम्यक् मिथ्या का भेद नहीं किया। गुण प्रत्यय अवधिज्ञान - किसी विशेष पर्याय की अपेक्षा न करके जीव के पुरुषार्थ द्वारा प्रगट होता है। यह क्षयोपशम निमित्तक भी कहलाता है, इसके ६ भेद होते हैं
१. अनुगामी, २. अननुगामी, ३. वर्धमान, ४. हीयमान, ५. अवस्थित, ६. अनवस्थित । यह मनुष्य और तिर्यचों को होता है।
अवधिज्ञान के प्रतिपाती, अप्रतिपाती, देशावधि, परमावधि और सर्वावधि भेद भी होते हैं।
जघन्य देशावधि संयत तथा असंयत मनुष्यों और तिर्यचों के होता है। उत्कृष्ट देशावधि संयत भाव मुनि के ही होता है।
अवधिज्ञान रूपी पुद्गल तथा उस पुदगल के संबंध वाले संसारी जीव के विकारी भाव को प्रत्यक्ष जानता है।
द्रव्य अपेक्षा - एक जीव के औदारिक शरीर संचय के लोकाकाश प्रदेश प्रमाण खण्ड करने पर उसके एक खंड तक का ज्ञान होता है।
क्षेत्र अपेक्षा-उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग तक के क्षेत्र को जानता है।
काल अपेक्षा - आवली के असंख्यात भाग प्रमाण भूत और भविष्य को जानता है।
भाव अपेक्षा - पहले द्रव्य प्रमाण निरूपण किये गये द्रव्यों की शक्ति को जानता है।
जीव अपने पुरुषार्थ से अपने ज्ञान की विशद्ध अवधिज्ञान पर्याय को प्रगट करता है, उसमें स्वयं ही कारण है, कर्म का क्षयोपशम निमित्त मात्र है।
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