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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
पूर्वक भाग लेते दिखाई देते हैं तब भी उनकी भेदविज्ञान की धारा तो अखंडित रूप से अंतर में भिन्न ही कार्य करती रहती है।
ज्ञानी जीव नि:शंक तो इतना होता है कि सारा ब्रह्मांड उलट जाये तब भी वह स्वयं नहीं पलटता । कर्मोदय विभाव के चाहे जितने उदय आयें तथापि चलित नहीं होता। बाहर के प्रतिकूल संयोग से ज्ञायक परिणति नहीं बदलती, श्रद्धा में
फेर नहीं पड़ता । ज्ञानी को संसार का कुछ नहीं चाहिये वे संसार से विमुख होकर मोक्ष के मार्ग पर चलते हैं, स्वभाव से सुभट हैं, अंतर से निर्भय हैं, किसी से डरते नहीं और उसे किसी उपसर्ग का भय नहीं है। ज्ञानी को स्वानुभूति के समय अथवा उपयोग बाहर आये तब भी दृष्टि तो सदा अंतस्तल पर ही लगी रहती है, इसी साधना से केवलज्ञान स्वभाव प्रगट होता है।
प्रश्न-मति श्रुत ज्ञानादि पंचभेद का स्वरूप क्या है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंअष्यर मति उववन्नं, षट् त्रि त्रि उववंन न्यान सभावं ।
सुतं च अष्यर मइओ, एकादस जानि सुद्ध सहकारं ।। २९ ।। अन्वयार्थ - (अष्यर) अक्षर से (मति) मतिज्ञान (उववन्नं) पैदा होता है (षट् त्रि त्रि) छह, तीन, तीन [अंकानां वामतो गति इस सूत्रानुसार उल्टे क्रम से तीन तीन छह इस प्रकार] तीन सौ छत्तीस भेद (उववंन) पैदा होते हैं, कहे गये हैं (न्यान) मतिज्ञान (सभावं) स्वभाव के (सुतं) श्रुतज्ञान (च) और (अष्यर मइओ) अक्षरमयी है (एकादस जानि) ग्यारह अंग का ज्ञान (सुद्ध सहकार) शुद्ध स्वभाव के सहकार साधना से होता है।
विशेषार्थ पांच इन्द्रियां और मन के द्वारा जानने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। यह अक्षर, स्वर, व्यंजन आदि से प्रगट होता है, इसके तीन सौ छत्तीस भेद कहे गये हैं । श्रुतज्ञान अक्षरमयी होता है। श्रुतज्ञान द्वारा ग्यारह अंग, चौदह पूर्व द्वादशांग वाणी का ज्ञान होता है। इन मति श्रुत ज्ञान की विशेषता, निर्मलता, वृद्धि शुद्ध ज्ञान स्वभाव की साधना से होती है ।
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ज्ञान गुण एक है और उसकी पर्याय के यह पांच भेद - मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान हैं। इनमें जब एक प्रकार उपयोग रूप होता है तब दूसरा प्रकार उपयोग रूप नहीं होता इसलिये इन पांच में से एक समय में एक ही ज्ञान का प्रकार उपयोग रूप होता है।
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गाथा २९ ******* सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक्ज्ञान होता है । सम्यक्ज्ञान कारण और सम्यक्ज्ञान कार्य है। सम्यक्ज्ञान आत्मा के ज्ञान गुण की शुद्ध पर्याय है।
जिस ज्ञान में १. अपना स्वरूप, २. अर्थ (विषय), ३. यथार्थ निश्चय, यह तीन बातें पूरी हों, जो संशय, विभ्रम, विमोह से रहित है उसे सम्यक्ज्ञान कहते हैं। जिसके यह पांच भेद हैं
१. मतिज्ञान - पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा अपनी शक्ति अनुसार जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं, इसके ३३६ भेद हैं ।
२. श्रुतज्ञान मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से जानना श्रुतज्ञान है।
३. अवधिज्ञान - जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा सहित इन्द्रिय या मन के निमित्त बिना रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
४. मनः पर्ययज्ञान - जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा सहित इन्द्रिय अथवा मन की सहायता के बिना ही दूसरे पुरुष के मन में स्थित रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं।
५. केवलज्ञान समस्त द्रव्य और उनकी सर्व पर्यायों को एक साथ प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं।
जिस जीव को सम्यक्ज्ञान हो जाता है वह अपने सम्यक् मति और सम्यक् श्रुतज्ञान के द्वारा अपने को सम्यक्त्व होने का निर्णय कर सकता है और वह ज्ञान प्रमाण है ।
प्रारंभ के दो अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। आगे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की विशेषता बतलाते हैं
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१. मतिज्ञान - मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, अभिनिबोध यह मतिज्ञान के नामांतर हैं। मतिज्ञान के ३३६ भेद हैं
१. अवग्रह, २. ईहा, ३ अवाय, ४. धारणा । मतिज्ञान के यह चार भेद हैं। अवग्रह आदि ज्ञान १२ प्रकार के पदार्थों का होता है -
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१. बहु, २. एक, ३. बहुविध ४. एकविध ५. क्षिप्र, ६. अक्षिप्र ७. अनि:सृत, ८. निःसृत, ९. अनुक्त, १० उक्त, ११. ध्रुव, १२. अध्रुव ।
१२ x ४ = ४८
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