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गाथा-२८****
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * भाव होते हैं उनके प्रति साधक उदासीन है। वीतराग धर्म का उपासक, वीतरागता * की साधना करता है वहाँ राग कैसे सहकारी हो सकता है ?
प्रश्न-जब तक पुण्य रूप क्रिया सदाचरण तथा पुण्य का उदय साथ नदेवे तब तक धर्म साधना कैसे हो सकती है?
समाधान-धर्म साधना में पुण्य-पाप दोनों का प्रक्षालन कर दिया है। श्री मालारोहण की गाथा ६ में श्री तारण स्वामी ने स्पष्ट कहा है
जे मुक्ति सुष्यं नर कोपि साधं, संमिक्त सुद्ध ते नर धरेत्वं । रागावयो पुन्य पापाय दूर, ममात्मा सुभाव धुव सुख दिस्ट ॥
जो कोई नर मुक्ति सुख चाहता है अर्थात् धर्म साधना करना चाहता है, वह नर शुद्ध सम्यक्त्व को धारण करे और रागादि के उदय व पुण्य-पाप कर्म से दूर मेरा आत्मा शुद्ध है, ध्रुव है ऐसा देखे, अनुभव करे वही मुक्ति का साधक है।
धर्मी को असंख्य प्रकार के शुभ राग का उदय हो तो भी उसे राग का रस नहीं है। धर्मी को शुद्ध चैतन्य के अमृतमय स्वाद के सामने राग का रस विष तुल्य भासता है। भूमिकानुसार यह सब होते हैं उससे साधक उदासीन है, शुद्ध धर्म ज्ञान का मार्ग सूक्ष्म है। ज्ञानी की अंतर शोधन की साधना बड़ी अपूर्व है। पुण्य-पाप से दृष्टि हटने पर ही शुद्ध धर्म की साधना होती है।
प्रश्न-शान मार्ग और ज्ञानी कौन है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - अयर सुर विंजनयं, न्यान सहावेन पंच न्यानम्मि । जदि अव्यर उववन्नं, पंडित विन्यान सुद्ध संजोयं ॥ २८॥
अन्वयार्थ-(अध्यर) अक्षर (सुर) स्वर (विजनयं) व्यंजन रूप (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव एक है (पंच न्यानम्मि) ज्ञान के पांच भेद कहे हैं (जदि) यदि (अष्यर) अक्षर, अक्षय स्वभाव (उववन्न) प्रगट हो जावे, अनुभूति में आ जावे (पंडित) वही ज्ञानी है (विन्यान) विज्ञान, जो भेदविज्ञान से (सुद्ध संजोयं) शुद्ध स्वभाव को संजोता है, प्रकाश करता है।
विशेषार्थ - संसार में अक्षर, स्वर, व्यंजन आदि जानने को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान स्वभाव आत्मा एक रूप ही है परंतु ज्ञान के पांच भेद- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान,
अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, ज्ञानावरणीय कर्म की अपेक्षा से कहे *जाते हैं। यदि अक्षर जिसका कभी क्षरण, क्षय नहीं होता, ऐसा अक्षय स्वभाव
प्रगट हो जावे, अनुभूति में आ जावे वही वास्तव में ज्ञान है तथा इसी की अनुभूति करने वाला ज्ञानी है, जो भेदविज्ञान से अपने शुद्ध स्वभाव पूर्ण मुक्त केवलज्ञान स्वभाव की साधना करता है। ज्ञानी उसे कहते हैं जो अपने त्रिकाली ज्ञायक ध्रुव स्वभाव को अनुभूतियुत जानता है, भेदरूप पंच ज्ञान का भी विकल्प नहीं रखता, मात्र ज्ञान स्वभावी शुद्ध चैतन्य केवलज्ञान स्वभाव मैं हूँ, ऐसे निज आत्म स्वभाव के श्रद्धान ज्ञान सहित उसकी दृष्टि तो ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा पर ही टिकी है। उसकी पर्याय में जैसा भी परिणमन चले वह पर्याय का लक्ष्य नहीं रखता, उसमें अटकता, रुकता नहीं है। धर्म दशा प्रगट हो, निर्मल पर्याय प्रगट हो परंतु ज्ञानी इन पर्यायों में नहीं रुकता, वह पूर्ण शुद्ध मुक्त केवलज्ञान स्वभाव ध्रुव तत्त्व का आराधन करता है।
जिनके अंतर में भेदज्ञान रूपी कला जागी है, चैतन्य के आनंद का वेदन हुआ है, ऐसे ज्ञानी धर्मात्मा सहज वैरागी हैं।
जिसे अपने ज्ञान स्वभाव चैतन्य स्वरूप का बोध नहीं जागा वह बाहर में कितना ही शास्त्र का ज्ञाता हो, उसका समस्त ज्ञान कुज्ञान है। मिथ्यादृष्टि नौ पूर्व व ग्यारह अंग का पाठी हो तो भी उसे अज्ञान ही है। जिसकी दृष्टि सुलटी है, जिसे अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा का ज्ञान हुआ है उसका सब कुछ सुल्टा है। जिसकी दृष्टि उल्टी है जिसे अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा का बोध नहीं है उसका सारा ज्ञान उल्टा है।
शान मार्ग तो अलौकिक है,संसार के जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाने टू वाला, जीव को वर्तमान जीवन में सुख, शांति, आनंद में रखने वाला,
अज्ञान जनित भय, चिंता, दु:ख संकल्प-विकल्पों को मिटाने वाला, मोक्ष प्रदाता एक मात्र ज्ञान मार्ग ही है।
बाह्य में अक्षर स्वर व्यंजन आदि के माध्यम से कितना ही शास्त्र ज्ञान किया जावे,जब तक अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा का ज्ञान नहीं होता तब तक वह सब अज्ञान है।
किसी ज्ञानी का धारणा ज्ञान अल्प भी हो परंतु प्रयोजनभूत ज्ञान तो समीचीन होता है। वह कदाचित् विशेष स्पष्टीकरण न कर सके परन्तु उसे स्वभाव की अपेक्षा तथा पर की उपेक्षा होने से ज्ञान प्रति समय विशेष-विशेष निर्मल होता जाता है। ज्ञानी की दृष्टि द्रव्य सामान्य पर ही स्थिर रहती है, भेदज्ञान की धारा सतत् बहती है। वे भक्ति, शास्त्र, स्वाध्याय आदि बाह्य प्रसंगों में उल्लास
KARKI
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