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गाथा-२५
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * विमल स्वभाव की दृष्टि से देखने पर प्रत्येक आत्मा स्वभाव से परमात्मा है और * वर्तमान में जो उस अवस्था में हो गये वह परम गुरू परमात्मा हैं।
यह आत्मा ही जिनवर है, यही तीर्थंकर है। अनादिकाल से जिनवर है, * अनंत केवलज्ञान का पिंड है। इसी में एकाग्र होने से पर्याय में जिनवर के दर्शन * होते हैं, परमात्मा प्रगट होते हैं।
द्रव्य स्वभाव से प्रत्येक जीव आत्मा जिन है, जिनवर है। वर्तमान पर्याय में अशद्धि होने से परमात्मपना अप्रगट, अव्यक्त है।जो जीव, द्रव्य स्वभाव का आश्रय लेते हैं, अपने सतस्वरूप का सत्श्रद्धान ज्ञान होने पर ज्ञायक स्वभाव से अपने स्वरूप में लीन होते हैं उनकी पर्याय में भी परमात्म पद प्रगट हो जाता है।
सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव ने जिस आत्मा को ध्रुव कहा है, उसका जो जीव अवलंबन ले उसे उस ध्रुव स्वभाव में से शुद्धता प्रगट होती है। ध्रुव स्वभाव की ओर लक्ष्य करने पर पर्याय में ध्रुव स्वभाव दिखता है। अंतर में यथार्थ लक्ष्य करे तो उसे ध्रुव स्वभाव दर्शित होगा ही। पर्याय के पीछे द्रव्य स्वभाव विद्यमान है, वहाँ दृष्टि करने से ध्रुव स्वभाव दर्शित होता है।
एक समय की निर्मल पर्याय को जो सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र की पर्याय है उसे रत्नत्रय कहा है, तो उसके फलरूप केवलज्ञान पर्याय महारत्न है और ऐसे अनंत गुणों का धारक यह आत्मा है, इसकी महिमा वचनातीत है। ऐसे आत्म स्वभाव का विश्वास और उसकी दृष्टि करने पर परमात्म पद सर्वज्ञपना परमगुरु स्वभाव प्रगट होता है।
इस आत्मा के परमात्मा होने की बात तो बड़े सौभाग्य से सुनने समझने को मिलती है। यह आत्मा की बात पैसे की चीज नहीं है, इसका बाह्य वस्तु धनादि से मूल्यांकन नहीं हो सकता । अनन्त-अनन्त जन्म-मरण के दारुण दुःख से, पर्यायी परिणमन के भयानक चक्र से छूटने के लिये जो निज शुद्ध स्वभाव रूप धर्म की शरण लेता है, वही आत्मा से परमात्मा बनता है।
आत्मज्ञानी, आत्मानुभवी सद्गुरु का सत्संग परम दुर्लभ है। जिनको ऐसे महान तारण-तरण गुरू का लाभ हो जाता है, उनको तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाता
है, वे आत्मा और परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को समझ जाते हैं। उनके ज्ञान में * मात्र सत्ता की अपेक्षा तो सिद्धात्मा में और अपने आत्मा में भेद दिखता है परन्तु
स्वभाव की अपेक्षा से कोई भेद नहीं दिखता है। ज्ञानी को अपना आत्मा कर्म
रहित शुद्ध परमात्मवत् दिखता है।
सच्चे गुरू के उपदेश से जब भले प्रकार आत्मा और अनात्मा का भेद मालूम हो जाता है फिर साधक इसका अभ्यास करता है, बार-बार मनन करता है कि मैं शुद्धात्मा भिन्न हूँ और यह कर्मादि शरीर संयोग भिन्न हैं। ऐसे निरंतर अभ्यास से जब स्वानुभव होता है तब अतीन्द्रिय आनंद अमृत रस के झरने बहने लगते हैं, इसी अपूर्व आनंद उत्साह में साधक आगे बढ़ता है और स्वभाव साधना से स्वयं परमात्मा हो जाता है ?
प्रश्न-इन सबको जानने समझने के लिये और क्या करना चाहिये।
समाधान - यह सब जानने समझने के लिये धर्म का स्वरूप जानना आवश्यक है।
प्रश्न-धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - धम्मं धरयति सुद्धं, धम्मं तियलोय सुद्ध सुपएसं । चेयन अनन्त रूवं, कम्म मल विपति तिविहिजोएन ॥२५॥
अन्वयार्थ - (धम्म) धर्म का स्वरूप (धरयति सुद्ध) शुद्ध भाव को धारण करना, शुद्ध स्वभाव में रहना है (धम्म) धर्म वस्तु स्वभाव को कहते हैं जो (तियलोय) तीन लोक में (सुद्ध सुपएसं) शुद्ध प्रदेशी है (चेयन) चैतन्य, चेतना लक्षणो धर्मो (अनन्त रूवं) अनंत गुण स्वरूपी है (कम्म मल षिपति) कर्म मल क्षय होते हैं (तिविहि जोएन) त्रिविधि योग से, मन वचन काय की एकाग्रता से।
विशेषार्थ - शुद्धभाव को धारण करना धर्म है, वस्तु स्वभाव को धर्म कहते हैं,जो तीन लोक में त्रिकाल शुद्ध प्रदेशी है।"चेतना लक्षणो धर्मो" चैतन्य स्वरूप ही धर्म है, जो अनंत गुण स्वभावी आत्मा का स्वरूप है। इस धर्म की महिमा यह है कि त्रिविधि योग से अर्थात् मन, वचन, काय से अपने उपयोग को हटा लेने से सम्पूर्ण कर्म मल क्षय हो जाते हैं।
शुद्धोपयोग ही धर्म है, पुण्य-पाप रूप क्रिया अथवा शुभाशुभ भाव धर्म नहीं है। संसार में अज्ञानी जन पुण्य को शुभ क्रिया तथा शुभ भाव को धर्म मानते हैं जबकि पुण्य-पाप कर्म हैं। शुभाशुभ भाव कर्म के कारण हैं, धर्म तो अपना शुद्ध स्वभाव है जो शुद्ध प्रदेशी चैतन्य लक्षणवाला अनंत गुण स्वरूपी है, अपने शुद्ध स्वभाव में रहने से पूर्व कर्म बंधोदय क्षय होते हैं, नवीन कर्मों का आश्रव,
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