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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
उसे दृष्टि के जोर से निज चैतन्य शुद्धात्मा ही भासता है, शरीरादि कुछ भासित नहीं होता । भेदज्ञान की परिणति ऐसी दृढ़ हो जाती है कि स्वप्न में भी आत्मा शरीर से भिन्न भासता है। उसको भूमिकानुसार बाह्य वर्तन होता है परंतु चाहे जिस संयोग में उसकी ज्ञान वैराग्य शक्ति जागरूक रहती है। स्वरूप अनुभव में अत्यंत निःशंकता वर्तती है, जिससे अज्ञान मिथ्यात्वादि का उन्मूलन हो जाता है, मिथ्या भाव संसारी व्यवहारिक मान्यतायें छूट जाती हैं। अगुरू, जो मोह माया के बंधन में फंसाते हैं, पाप-परिग्रह में उलझाते हैं उनसे छूट जाता है। ज्ञानी को स्वानुभूति के समय या उपयोग बाहर आये तब भी दृष्टि तो सदा अंतस्तल पर ही लगी रहती है। बाह्य में एकमेक हुआ दिखाई देवे, तब भी वह तो (दृष्टि अपेक्षा) गहरी अंत: गुफा में से बाहर निकलता ही नहीं है।
जब सम्यक्ज्ञान के प्रकाश में केवलज्ञान स्वभाव से मिलता है तब शुद्ध स्वभाव शुद्धात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, जिससे सारे कर्म अपने आप क्षय होने लगते हैं और ज्ञान स्वभाव की एकाग्रता बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान स्वभाव प्रगट हो जाता है।
साधक जीव की दृष्टि निरंतर निज शुद्धात्म तत्त्व पर होती है तथापि साधक सबको जानता है, वह शुद्ध-अशुद्ध पर्याय को जानता है। शुभाशुभ भाव कर्मोदय मन आदि सबको जानता है परन्तु किसी का लक्ष्य या अपेक्षा न होने से वह सब गलते विलाते क्षय होते जाते हैं। ज्ञान स्वभाव की साधना से ज्ञान में वृद्धि होती जाती है, मति श्रुत ज्ञान की शुद्धि वृद्धि होने पर अवधि ज्ञान, मनः पर्ययज्ञान और केवलज्ञान क्रमशः प्रगट होते जाते हैं।
यह आत्मा स्वसंवेदन से ही अनुभव में आता है। जब वृत्ति का निरोध कर आपसे आपको ही ग्रहण किया जाता है तब ही शुद्धात्मानुभूति होती है। सम्यक्ज्ञान में स्व-पर का यथार्थ निर्णय होता है। वर्तमान में आत्मा शरीर प्रमाण आकार धारी है, अविनाशी द्रव्य है, परम आनंदमयी है तथा लोकालोक का प्रकाशक देखने जानने वाला है। इस तरह ज्ञानानुभूति पूर्वक ममल स्वभाव की रुचि पैदा हो जाने पर ऐसा कुछ निर्मल परिणाम होता है कि समय-समय असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा होने लगती है तथा ज्ञान स्वभाव के प्रकाश से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय रूप घातियाकर्म का क्षयोपशम और क्षय जितना होता जाता है उतना ज्ञान बढ़ता जाता है तब यह आत्मा से परमात्मा, से गुरु परम गुरु हो जाता है।
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गाथा २४-*-*-*-*-*
प्रश्न- जब आत्मा ही गुरू और परमगुरू है फिर बाहर किसी को गुरु और परम गुरु परमात्मा मानने की क्या आवश्यकता है ?
समाधान - निश्चय से आत्मा ही गुरू और परमगुरू है और होता है। कोई जड़ अचेतन शरीरादि न गुरू होता है न परमगुरू होता है। प्रत्येक जीव आत्मा में यह शक्ति विद्यमान है जो वर्तमान में पूर्व अज्ञान जनित बंधोदय से अप्रगट है। जिन जीवों की ज्ञान चेतना अंतरात्मा का जागरण हो जाता है, वह आत्मा से परमात्मा, गुरू से परमगुरू हो जाते हैं, उन्हें ही गुरू और परमगुरू कहते हैं और व्यवहार से यह अन्य जीवों के जागरण में निमित्त होते हैं इसलिये बाहर से गुरू और परम गुरु परमात्मा को मानते हैं।
इसी ग्रन्थ की गाथा ७४ में कहा है.
देवं च परम देवं गुरुं च परम गुरुं च संदि ।
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धम्मं च परम धम्मं, जिनं च परम जिनं निम्मलं विमलं ॥ ७४ ॥
यह आत्मा ही देव, देवों का अधीश्वर देव है । कोई नहीं गुरु, आत्मा ही परम गुरु स्वयमेव है ॥ यह आत्मा ही धर्म, धर्मों में कि धर्म महान है । यह आत्मा ही विमल निर्मल, परम जिन भगवान है ॥ चलजी)
प्रश्न- परम गुरु का स्वरूप क्या है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
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परम गुरु च सरूवं, परम सुभाव परम दरसीए । अप्पानं सुद्धप्पानं परमप्पा दर्सए विमलं ॥ २४ ॥ अन्वयार्थ - (परम गुरुं च सरूवं) परमगुरु का स्वरूप (परम सुभाव) परम पारिणामिक स्वभाव वाला (परम दरसीए) परमानंदमयी परमात्मा परम पद में दिखाई देता है (अप्पानं) यह आत्मा भी (सुद्धप्पानं) शुद्धात्मा है (परमप्पा) परमात्मा है (दर्सए विमलं) कर्ममल रहित विमल शुद्ध स्वभाव से देख लो । विशेषार्थ परमगुरू परमात्मा का स्वरूप, परम पारिणामिक स्वभाव वाला परमानंदमयी परमात्मा जो परम पद में प्रतिष्ठित है। अरिहंत सर्वज्ञ केवलज्ञानी परमात्मा को परमगुरू कहते हैं, जो वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी होते हैं। निश्चय से आत्मा ही शुद्धात्मा, परमात्मा है। कर्म मल रहित अवस्था से
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