SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा -२२,२३********* * E- 38 * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * क्रिया का उस पर कोई असर नहीं पड़ता। ऐसे अपने सत्स्वरूप शुद्धात्म तत्त्व को जो विचार कुशल साधक जान लेता है, अपने भेदज्ञान द्वारा अपने आपको कर्मों से भिन्न असंबद्ध निर्लिप्त अनुभव कर लेता है कि कर्मों के साथ अपना संबंध न * कभी हुआ है, न है,न होगा और न हो ही सकता है; कारण कि कर्म परिवर्तनशील हैं और स्वयं में कभी परिवर्तन होता ही नहीं है ''मैं ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा ममल स्वभावी टंकोत्कीर्ण अप्पा हूँ" ऐसी अनुभूति सहित अपने उपयोग को बार-बार ममल स्वभाव में लगाता है। ज्ञानोपयोग का निरंतर अभ्यास करता है। शुद्ध सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान सहित ज्ञायक स्वभाव में रहता है ऐसा ज्ञानांकुर बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान स्वरूप हो जाता है। देहधारी ज्ञानी पुरुष देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों कर्मों का अतिक्रमण करके जन्म-मृत्यु और वृद्धावस्था रूप दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है। प्रश्न - यह तो जीव के स्वयं बोध जागने पर होता है इसमें सदगुरु क्या करते हैं? समाधान - सद्गुरु के उपदेश से ही जीव का विवेक जागता है इसलिये सद्गुरु निमित्त कारण होते हैं तथा जैसे-माली बगीचे में वृक्षों को देख-देख कर जिसको जैसी आवश्यकता होती है, वैसा जल सींचता है और जो भी अनावश्यक अहितकारी वस्तुयें होती हैं उन्हें उखाड़कर फेंक देता है। इसी प्रकार सद्गुरू जीव की पात्रता परिस्थिति देखकर उसे ऐसी युक्ति बताते हैं तथा ऐसा ज्ञान का उपदेश देते हैं, जिससे उसका सारा अज्ञान मिथ्यात्व शल्य भय शंकायें विला जाती हैं। आत्मबल और पुरुषार्थ बढ़ता है और वह आनंद उत्साह पूर्वक मोक्षमार्ग पर चलता है। प्रश्न- इसमें निज अंतरात्मा के जागरण की विशेषता है या सदगुरु के उपदेश की विशेषता है? समाधान - विशेषता तो निज अंतरात्मा के जागरण की है, उसमें सद्गुरु * का उपदेश निमित्त है क्योंकि जब तक अंतरात्मा का जागरण नहीं होता तब तक बाह्य उपदेश कोई कार्यकारी नहीं होता तथा निज अंतरात्मा का जागरण ही * निश्चय सद्गुरु है, वही अपने अंतर की सारी बातों को जानता है और उन्हें दूर करता है, बाह्य में सद्गुरु तो मात्र निमित्त सहकारी होते हैं। निमित्त कुछ करता नहीं है परन्तु बगैर निमित्त के कोई कार्य होता नहीं है, ************ ऐसी ही निमित्त उपादान की विशेषता है। बाह्य में सद्गुरु का मिलन, सत्संग तो समय-समय पर कभी-कभी होता है। निज अंतरात्मा सद्गुरु का तो निरंतर ही सत्संग, सहयोग मिलन रहता है। प्रश्न- अंतरात्मा का जगरण होने पर क्या होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - न्यानांकुरं च दिडं, अन्यानांकुर उन्मूलनं तंपि । मिच्छांकुर उन्मूलं, उन्मूलं अगुरु उवएसं ॥ २२ ॥ न्यानं च परमन्यानं, मिलियं च सुख सहाव सुइरूवी। कम्म मल सुयं च विपनं, न्यान सहावेन विधनं न्यानं ॥ २३ ॥ अन्वयार्थ -(न्यानांकुरं च दिट्ट) जब भव्य जीवों के भीतर आत्मज्ञान का अंकुर, अंतरात्मा का जागरण दीख पड़ता है, दिखाई देता है (अन्यानांकुर) अज्ञान का अंकुर (उन्मूलन) उखड़ जाता है (तंपि) तब ही, तुरंत ही (मिच्छांकुर उन्मूलं) मिथ्यात्व भाव का अंकुर भी उखड़ जाता है, दूर हो जाता है (उन्मूलं) उखड़ जाता है, दूर हो जाता है, हट जाता है (अगुरु उवएस) अगुरु का उपदेश, संसारी व्यवहारिक मान्यता। (न्यानं च) जब ज्ञान और (परम न्यानं) परम ज्ञान, केवलज्ञान से (मिलियं) मिलता है (च) और (सुद्ध सहाव सुइ रूवी) शुद्धात्म स्वभाव प्रत्यक्ष अनुभव में आता है (कम्म मल सुयं च विपन) कर्म मल स्वयं झड़ने, क्षय होने लगता है तथा (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव से (विधनं न्यानं) ज्ञान बढ़ने लगता है। विशेषार्थ-जब भव्य जीवों के भीतर आत्मज्ञान का अंकुर सम्यज्ञान का प्रकाश अंतरात्मा का जागरण दिखाई देता है तब तुरंत ही अज्ञान का अंकुर मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान विला जाता है। मिथ्यात्व भाव फिर दिखाई नहीं देता तथा अगुरुओं का उपदेश संसारी व्यवहारिक मान्यतायें भी मिट जाती हैं। सम्यज्ञान में केवलज्ञान की नोंध होती है। जब आत्मज्ञान (परमज्ञान) केवलज्ञान स्वभाव से मिलता है, जब साधक अपने को केवलज्ञान स्वभावी अनुभव करता है तब शुद्धात्म स्वभाव का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। परमात्म स्वरूप प्रत्यक्ष अनुभूति में आता है, जिससे कर्म मल पूर्व कर्म बंधोदय स्वयं क्षय होने लगते हैं तथा ज्ञान स्वभाव की साधना से ज्ञान बढ़ता जाता है, जो एक समय स्वयं केवलज्ञान स्वभाव हो जाता है। जिसको द्रव्यदृष्टि यथार्थ प्रगट होती है, KKAKKAR E-E-E E-
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy