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*********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-१९-२१ **
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* क्रिया को धारण नहीं करता है। उसे यह भय रहता है कि कहीं कोई बाधा न आ * जावे, पूर्व कर्म बंधोदय बाधक न बन जावे आशा, स्नेह, लोभ, भय, गारव पेरते
हैं। व्यवहार की चिंता अधिक होने से वह अधिक समय स्वानुभव में नहीं ठहर * सकता है। कषाय के उदय से व आत्म पुरुषार्थ की कमी से वह लाचार रहता है।
जब तक चित्त परद्रव्य के व्यवहार में संलग्न रहता है, तब तक साधक अपने आत्मस्वरूप की साधना नहीं कर पाता है।
सद्गुरु साधक का उत्साह बढ़ाकर आत्म पुरुषार्थ जगाते हैं तथा कोई बाधायें आती हैं तो उनका निराकरण करते हैं। इसकी और विशेषता आगे की गाथाओं में कहते हैं
अंकुर सुद्ध सरूवं, असुद्ध अंकुर उन्मूलनं तंपि । सुद्ध न्यान सहावं, अंकुर न्यानस्य विधि सहकारं ॥ १९ ॥ जं उववनं च माली, दिट्ठी दिहे सुद्ध अन्मोयं । सिंचति जल सहावं, न्यानं जलं सिंचए गुरुवं ॥ २०॥ माली तं सीचंते,आदं आदं च मिलिय जल सुद्धं । परम गुरुं अन्मोयं,न्यानं न्यानेन ममल मिलियं च ॥ २१ ॥
अन्वयार्थ - (अंकुर सुद्ध सरूवं) शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव ही अंकुर है, अंतरात्मा का जागरण ही ज्ञानांकुर है (असुद्ध अंकुर) अशुद्ध अंकुर, मिथ्यात्व अज्ञान रूपी अंकुर (उन्मूलनं तंपि) उसी से उखड़ जाता है (सुद्ध न्यान सहावं) शुद्ध ज्ञान स्वभाव में रमना (अंकुर न्यानस्य) ज्ञान का अंकुर (विधि) वृद्धि, बढ़ना, उन्नति (सहकार) सहकारी है।
(ज) जैसे (उववनं) उपवन का (च) और (माली) माली, बगीचे की देखरेख करने वाला (दिट्ठी दिढेइ) देख देखकर (सुद्ध अन्मोयं) वृक्षों की सफाई करता है (सिंचति) सींचता है (जल सहाव) निर्मल जल के द्वारा (न्यानं जलं) ज्ञान का जल (सिंचए गुरुवं) सद्गुरू सिंचन करते हैं अर्थात् परम हितकारी धर्म का उपदेश देते हैं।
(माली तंसीचंते) माली ऐसे ढंग से वृक्ष को सींचता है (आदं आदं च मिलिय) नमी से नमी मिल जाये (जल सुद्धं) उनमें शुद्ध जल देता है (परम गुरुं) परम गुरु का (अन्मोयं) आलंबन (न्यानं न्यानेन) ज्ञान से ज्ञान में (ममल मिलियं च) ममल
स्वभाव में मिला देता है।
विशेषार्थ- शुद्ध स्वरूप का अंकुर अर्थात् सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान होते ही मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान का अंकुर उखड़ जाता है, जितनी-जितनी शुद्ध ज्ञान स्वभाव में रमणता होती है, उतना-उतना ही ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जाता है । जैसे- उपवन का माली बगीचे के एक-एक वृक्ष को देखता हुआ देख-देख कर पानी सींचता है, इसी प्रकार श्रीगुरू जीवों की पात्रता देखकर ज्ञान का जल सींचते हैं। जैसे-माली देखता है कि बाग में किन वृक्षों को जल की आवश्यकता है, जिनको जल की जरूरत होती है उन वृक्षों की जड़ों में ऐसी चतुराई से पानी पहुंचाता है कि वे वृक्ष हरे-भरे हो जावें, इसी प्रकार श्री गुरू
जिनको धर्मोपदेश की जरूरत समझते हैं, उनको इस रीति से धर्मामृत पिलाते हैं ए कि उसको प्रसन्नता भी हो और वह उपदेश उसके हृदय में ऐसा बैठ जावे जिससे
उसका आचरण यथार्थ हो जावे और वह मोक्षमार्ग में उन्नति करता हुआ चला जावे।
ज्ञान के क्षयोपशम का महत्व नहीं है परन्तु अनुभूति का महत्व है। शुद्ध स्वरूप की अनुभूति ही ज्ञानांकुर है, जो सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान स्वरूप है. जिसके होने पर अशुद्ध अंकुर अर्थात् मिथ्यात्व अज्ञान विला जाते हैं और यही ज्ञानांकुर बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान स्वभाव हो जाता है।
जैसे- उपवन का माली बगीचे के एक-एक वृक्ष को देखकर उसको आवश्यकतानुसार पानी देता है, उसी प्रकार सद्गुरू भव्यजीवों की पात्रता परिस्थिति देखकर ज्ञान का जल सींचते हैं,जब जिसको धर्मोपदेश की आवश्यकता होती है तब उसको शुद्ध, शांत आनंदमय आत्मतत्त्व का उपदेश करते हैं।
धर्म की उन्नति, जीवों के कल्याण का मार्ग, ऐसे ही परमोपकारी सच्चे गुरू के द्वारा होता है, जो उसके अज्ञान मिथ्यात्व को उखाड़ फेंकते हैं। वस्तु स्वरूप समझने पर जब विवेकी (विचार कुशल) मनुष्य तीनों कर्म- द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और अपने को कर्मों से भिन्न अनुभव करता है तब वह शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
तीन कर्मों के सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं अर्थात् संपूर्ण क्रियायें कर्मों के उदय से ही हो रही हैं और संपूर्ण परिवर्तन कर्मों में ही हो रहा है और कोई कारण नहीं है। वे कर्म जिससे प्रकाशित होते हैं, वह तत्त्व कर्मों से भिन्न है। कर्मों से भिन्न होने से चैतन्य आत्मा कभी कर्मों से लिप्त नहीं होता अर्थात् कर्म और
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