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गाथा -१८*-*
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
परम पुरुष मोक्ष के परमपद में सदा ही कर्म के लेपरहित व बाधा रहित * अपने स्वरूप में स्थिर आकाश के समान परम निर्मल प्रकाशमान रहते हैं। वे
परमात्मा अपने परम पद में कृतकृत्य व सर्व जानने योग्य विषयों के ज्ञाता परमानंद में मगन सदा ही अतीन्द्रिय आनंद का भोग करते रहते हैं।
इन्द्र पद, चक्रवर्ती पद, तीर्थंकर पद यह सब कर्मकृत उपाधियां हैं। आत्मा इन सबसे भिन्न निरंजन प्रभु परमदेव है। यह आत्मा चैतन्य शक्ति से सर्वांग पूर्ण है, इसके सिवाय सर्व रागादि भाव पुद्गल की रचना है।
वर्तमान में चैतन्य शक्ति के सिवाय समस्त पापों को छोड़कर व चैतन्य शक्ति मात्र भाव के भीतर भले प्रकार प्रवेश करके सर्व जगत के प्रपंच छोड़कर साक्षात् प्रकाशमान अपने ही आत्मा को जो अनंत गुणों का भंडार है, वह अपने ही भीतर अनुभव करने योग्य है । भगवान आत्मा अनंतगुण स्वरूप प्रभु है, उसके एक-एक गुण में अनंत-अनंत गुणों का रूप है, पर उसमें राग का रूप नहीं है सद्गुरू का ऐसा स्पष्ट कथन होता है कि हे जीव ! यदि तुझे तेरा संसार परिभ्रमण टालना हो तो तीक्ष्ण बुद्धि से आनंद सागर निज स्वभाव को पकड़ ले। जो आनंद स्वरूप निज चैतन्य धाम तेरे हाथ में आ गया तो मुक्ति की पर्याय सहज ही मिल जायेगी। ऐसे सत्यधर्म, वस्तुस्वरूप को सुनकर भव्य जीवों का अज्ञान अंधकार विला जाता है। अपने शुद्धात्म स्वरूप की प्रतीति रूप सम्यक्दर्शन का प्रकाश हो जाता है।
प्रश्न - सदगुरु का समागम इष्ट है या अंतरात्मा का जागरण अर्थात् सम्यकदर्शन होना इट है?
समाधान - अंतरात्मा का जागरण सम्यक्दर्शन होना ही इष्ट है, उसमें सद्गुरु का समागम निमित्त है।
प्रश्न -जब निज अंतरात्मा ही अपना सच्चा गुरू है, फिर व्यवहार में सद्गुरू की क्या आवश्यकता है?
समाधान- अनादि अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होने से अंतरात्मा के जागरण में सद्गुरु का सत्संग निमित्त कारण आवश्यक है तथा जब तक देवत्व पद प्राप्त नहीं होता तब तक उसकी साधना में भी सद्गुरू सहकारी हैं।
प्रश्न - इस साधना में सद्गुरु कैसे सहकारी हैं ?
इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं - ************
परम गुरुं उवएस, न्यान सहावेन अन्मोय संजुत्तं । न्यानांकुरं च दिडं, अन्मोयं न्यान सरूव विन्यानं ॥ १८॥
अन्वयार्थ - (परम गुरुं उवएस) परम गुरू ऐसा उपदेश करते हैं (न्यान सहावेन) अपने ज्ञान स्वभाव का (अन्मोय) आलंबन लो, आश्रय करो (संजुत्तं) संयुक्त रहो, लीन रहो (न्यानांकुर) ज्ञान का अंकुर निकल आया, जैसे बीज बोने पर अंकुर निकलता है, केवलज्ञान की किरण प्रगट होना (च दि8) उसे देखो (अन्मोयं) अनुमोदना करो, प्रसन्न रहो (न्यान सरूव) ज्ञान स्वरूप (विन्यानं) भेदविज्ञान द्वारा।
विशेषार्थ-श्रीगुरू का उपदेश, साधक का उत्साह और आत्मबल बढ़ाता है। सद्गुरू कहते हैं अपने ज्ञान स्वभाव का आलंबन लो, आश्रय करो और उसी में लीन रहो, देखो यह केवलज्ञान की किरण, सम्यक्ज्ञान का प्रकाश हो गया। जैसे-किसान खेत में बीज बोता है, उसमें अंकुर निकलते हैं तो देखकर प्रसन्न आनंदित होता है, उसे इसका बड़ा उत्साह बहुमान आता है कि अच्छी फसल आयेगी, इसी प्रकार ज्ञान का अंकुर प्रगट होने पर केवलज्ञान होगा ही, इस उत्साह से अपने भेदविज्ञान के द्वारा ज्ञान स्वरूप की अनुमोदना करो और आनंद उत्साह में रहो। जैसे-कोई आगे जाना वाला यात्री, पीछे चलने वाले यात्रियों को सचेत, सावधान करता है, उत्साह बढ़ाता है, इसी प्रकार सद्गुरू साधक का उत्साह आत्मबल बढ़ाते हैं।
आत्मानुभव ही ज्ञानांकुर है, यही भाव श्रुतज्ञान है, यही केवलज्ञान का बीज है। सम्यक्दृष्टि के भीतर यह ज्ञानांकुर उत्पन्न हो जाता है इसलिये वह अवश्य मोक्ष का पात्र होता है।
इस भयानक व नाना प्रकार के दु:खों से भरे हुए संसार में रुलते हुए जीव ने आत्मज्ञान रूपी महान रत्न को कहीं नहीं पाया। सद्गुरू कहते हैं कि अब तूने इस उत्तम सम्यक्दर्शन को पा लिया है, यह ज्ञान का अंकुरण हो गया, अब तो प्रमाद न कर, विषयों के स्वाद में लोभी होकर इस तत्त्व को खो न देना, सम्हाल कर रक्षा करते हुए परम सुखी परमानंदमय, परमात्मा बनो, इसके लिये उत्साह वर्द्धन करते हैं कि अपने ज्ञान स्वभाव में ही लीन रहो। इस ज्ञान स्वरूप की ही अनुमोदना करो, इससे केवलज्ञान प्रगट होगा।
साधक दृढता पूर्वक बिना परिणामों की उच्चता प्राप्त हुए किसी ऊँची
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