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गाथा-१७*
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी मिथ्यात्व, कुज्ञान, शल्य से छूटकर, कर्मों को क्षय कर मुक्ति पाता है।
अनादि काल से चार गतियों में जीवों का परिभ्रमण हो रहा है इसे संसार * कहते हैं। चारों गतियों में क्लेश व चिंतायें रहती हैं। शरीरादि व मानसिक दु:ख
जीव को कर्मों के उदय से भोगना पड़ते हैं। जन्म-मरण का महान क्लेश तो चारों गतियों में है। सद्गुरू इस दु:खमय संसार से उदास होकर मोक्ष पद पाने की भावना करते हैं और यही उपदेश समस्त भव्य जीवों को देते हैं। सम्यक्दृष्टि महात्मा परम आनंद व परमज्ञान की विभूति से पूर्ण शिवपद को पाते हैं। जहाँ जरा नहीं, रोग नहीं, क्षय नहीं, बाधा नहीं, शोक, भय नहीं, शंका नहीं रहती है। आत्मानुभव ही मोक्ष का उपाय है।
सद्गुरू जिन्हें विज्ञ कहते जगत में, होते कि वे दिव्यतम दृष्टि धारी। वे सूक्ष्म से सूक्ष्मतम कर्म दल की, उन्मूल करते वृहत् सृष्टि सारी॥ उपदेश पाकर कि उनका हृदय में रहने न पाता मलों का बसेरा। मिथ्यात्व कुज्ञान शल्ये वहाँ से, अपना हटातीं कि अविलम्ब डेरा ॥
प्रश्न - सद्गुरु के उपदेश से आत्मबोध होता है या जीव के स्व विवेक के जागने से होता है?
समाधान - मूल में उपादान कारण जीव का स्व विवेक जागने पर ही आत्मबोध होता है, उसमें निमित्त कारण सद्गुरु का उपदेश होता है क्योंकि अनादि से जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है इसलिये स्वाध्याय सत्संग से ही बोध जागता है।
प्रश्न-गुरू इसमें क्या करते हैं?
इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं - गुरुंच गुन उवएसं, न्यान सहावेन उवएसनं सुद्धं । गुरुंच गगन सरूवं, सूरं तिमिरनासनं सहसा ॥ १७॥
अन्वयार्थ - (गुरूं) श्रीगुरु (च) और (गुन) गुण (उवएस) उपदेश करते हैं (न्यान सहावेन) ज्ञान स्वभाव से (उवएसन) उपदेश करते हैं, कहते हैं (सुद्धं) * शुद्ध तत्त्व, शुद्ध स्वरूप (गुरुंच) गुरू तो (गगन सरूवं) गगन स्वभाव, आकाश * के समान स्वभाव वाले (ज) जैसे (सूरं) सूर्य के प्रकाश से (तिमिरनासन) अंधकार का नाश (सहसा) एकदम, यकायक, सहसा।
विशेषार्थ-श्री गुरू अपने आत्म गुणों को जगाने का उपदेश देते हैं।
स्वयं ज्ञान स्वभाव से परिपूर्ण आत्मानुभव में लीन शुद्धात्म तत्त्व का उपदेश करते हैं, उनका करुणाभाव यह रहता है कि सभी जीव अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति कर मोक्षमार्ग पर चलें, इस संसार परिभ्रमण से मुक्त हो जावें। श्रीगुरू निस्पृह, आकिंचन्य, वीतरागी होते हैं वह किसी से कोई अपेक्षा, आकांक्षा नहीं रखते। जैसे-आकाश निर्लेपनिर्मल होता है, इसीप्रकार सद्गुरू निर्मल, निर्लेप, निर्मोही होते हैं उनके वचनों का ऐसा अतिशय होता है कि भव्यजीवों का मोह का अंधकार विला जाता है। जैसे-सूर्योदय होने पर अंधकार विला जाता है, इसी प्रकार सद्गुरू के उपदेश से अज्ञान अंधकार विला जाता है।
__वैराग्य बिना धर्म में चित्त स्थिर नहीं होता, आत्मा को स्व की अपेक्षा हुई तो पर की उपेक्षा हुए बिना नहीं रहती वह वैराग्य है,पर की उपेक्षा करने वालों को अंतर में स्थिरता होती है। मुक्ति मार्गशुद्धोपयोग रूप है। पुण्य-पाप रूप शुभाशुभ भाव धर्म नहीं है परन्तु शुद्धोपयोग ही धर्म है। जो ऐसे शुद्धोपयोग की साधना में रत रहते हैं वही सद्गुरु कहलाते हैं। इनके तीन पद-साधु, उपाध्याय, आचार्य होते हैं, परमगुरू अरिहन्त को कहते हैं।
शुद्ध आत्मा का निर्मल अनुभव ही मोक्षमार्ग है, उसके बाधक कारण, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञानव मिथ्याचारित्र हैं। अनंतानुबंधी कषाय और मिथ्यादर्शन कर्म के उपशम या क्षय से रत्नत्रय स्वरूप सम्यक्दर्शन प्रगट होता है जो आत्मा का गुण है। जैसे-जैसे स्वानुभव का अधिक अभ्यास होता है, वैसे-वैसे कषाय की मलिनता कम होती जाती है, तब ज्ञान निर्मल व चारित्र ऊंचा होता जाता है। श्रावक पद में देश चारित्र होता है, साधु पद में सकल चारित्र होता है। रत्नत्रय की पूर्णता शुद्धता हो जाना ही मोक्ष है इसलिये साधु वीतरागता सहित निग्रंथ होकर आत्म ध्यान का अभ्यास करते हैं। एक मुहूर्त अर्थात् अड़तालीस मिनिट अपने शुद्ध स्वरूप में स्थिर रहने पर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है, आयु पूर्ण होने पर सिद्ध पद प्राप्त हो जाता है। सद्गुरू ऐसे सिद्धपद को प्राप्त करने का उपदेश देते हैं, विधि बताते हैं। चारों गति के क्षणिक पद सब त्यागने योग्य हैं। चक्रवर्ती पद, नारायण, बलभद्र, राज पद, श्रेष्ठिपद, इन्द्र पद आदि सब क्षणिक नाशवान हैं। ध्रुव अविनाशी, शाश्वत पद सिद्धपद ही है, जो सादि अनंतकाल तक रहने वाला है। इस पद को प्राप्त करने का उपाय सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ही है; इसलिये संसार शरीर भोगों से वैराग्यवान होकर उत्तमक्षमा आदि दशधर्मों का पालन करते हुए पंच परमेष्ठी पद के माध्यम से सिद्ध पद प्राप्त होता है।
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