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2-4-******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-१५,१६*-*-*-31--2-H-HE
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* झलकता है, जिसके स्मरण मात्र से ही ऐसी ज्ञान ज्योति प्रगट होती है उस भगवान * आत्मा परम देव को तू शीघ्र ही इस देह के भीतर खोज बाहर और कहाँ दौड़ता है।
मैं नित्य सहजानंद मय हूँ, शुद्ध हूँ, चैतन्य स्वरूप हूँ, सनातन हूँ, परम ज्योति स्वरूप हूँ, अनुपम हूँ, अविनाशी हूँ इस तरह अनुभव करने से परमात्म पद का लाभ होता है।
प्रश्न - जब जीव अनादि से अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है तो सच्चे देव के स्वरूप को और अपने सत्स्वरूप को कैसे जान सकता है?
समाधान - सद्गुरू के सत्संग और उपदेश से सच्चे देव के स्वरूप को और अपने सत्स्वरूप को जाना जाता है।
प्रश्न - सच्चे गुरू का स्वरूप क्या है और वह क्या उपदेश देते हैं?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - गुरुं सहाव स उत्तं, गुरुं तिलोय भाव सुपएसं । गुपितं गुर्न सरूवं, गुपितं रुचियंति उवएसनं गुरुवं ॥१५॥
अन्वयार्थ - (गुरुं सहाव) गुरू के स्वभाव को (स उत्तं) कहा गया है, कहते हैं (गुरूं) गुरू वे हैं (तिलोय) तीन लोक (भाव) स्वभाव (सुपएसं) शुद्ध प्रदेशी (गुपितं) छिपा हुआ, रहस्यमय, तीन गुप्ति (गुनं) गुनते हैं, धारते हैं, अनंतगुण (सरूवं) स्वरूप को (गुपितं) गुप्त, रहस्यमय (रुचियंति) रुचि को जाग्रत करते हैं (उवएसन) उपदेश द्वारा (गुरुवं) वे ही गुरु हैं।
विशेषार्थ - सच्चे गुरू के स्वरूप को कहते हैं, गुरू वे हैं जो तीन लोक में श्रेष्ठ सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से युक्त हैं, शुद्ध स्वभाव के धारी हैं, तीन गुप्ति के धारी, मूल गुणों का पालन करते हुए अपने स्वरूप में लीन रहते हैं तथा गुप्त परम अध्यात्म के रहस्य का उपदेश कर भव्य जीवों की रुचि जागृतकर मोक्षमार्ग पर लगाते हैं वे ही गुरू हैं।
निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु को व्यवहार से सच्चे गुरू कहते हैं, निश्चय से अंतरात्मा का जागरण ही अपना सद्गुरू है। पूर्व में आत्मा को चाहे बिना केवल विषय-कषाय में ही जीवन बिताया है। यदि वर्तमान में रुचि को बदलकर आत्मा की रुचि करे तो अपूर्व आत्मज्ञान हो सकता है, इसमें सदगुरू निमित्त होते हैं।
सद्गुरू आत्मा के सत्स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हैं। सच्चे देव परमात्मा का स्वरूप बताते हैं। प्रत्येक जीव आत्मा स्वभाव से परमात्मा है। अपने स्वभाव
को भूला अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बना संसार में रुल रहा है। जो जीव अपने आत्म स्वभाव का श्रवण, मनन कर उसे लक्ष्य में लेते हैं, धर्म की महिमा भासित होती है, वे अंतर्मुख होकर परमात्मा का साक्षात्कार दर्शन करते हैं।
जो आरंभ परिग्रह से रहित हैं, धीर हैं, रागादिमल से विरक्त हैं, शांत हैं, जितेन्द्रिय हैं, तप आभूषण के धारी हैं, मुक्ति की भावना में तत्पर हैं, जो मन वचन काय त्रियोगों में एकता को धारने वाले हैं,व्रती हैं, ध्यानी हैं, दयावान हैं, जिनका शांत, समभाव रखने का प्रण है, जो कर्म शत्रुओं के विजेता, कषायों से रहित, रत्नत्रय के धारी, तीन गुप्ति के पालक निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु वे ही सच्चे गुरू हैं। जिनके उपदेश से भव्य जीव अपने आत्म स्वरूप को पहिचान कर संसार परिभ्रमण से छूटकर मुक्ति मार्ग पर चलते हैं।
प्रश्न-गुरू की विशेषता क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं - गुरुं विसेषं दिह, सूषिम सभाव कम्म संविपनं । उवएसं पिपिऊन, मिथ्या कुन्यान सल्य मुक्कं च ॥ १६ ॥
अन्वयार्थ - (गुरुं विसेषं) गुरू की विशेषता (दि8) दृष्टि है, देखते हैं (सूषिम सभाव कम्म) सूक्ष्म स्वभावधारी कर्म (संषिपन) क्षय करने वाले हैं (उवएसं विपिऊन) उन्हीं कर्मों के क्षय करने का उपदेश देते हैं (मिथ्या) मिथ्यात्व (कुन्यान) कुज्ञान-कुमति, कुश्रुत, कुअवधि (सल्य) तीन शल्य-मिथ्या माया निदान (मुक्कं च) छूट जाते हैं।
विशेषार्थ- गुरु की विशेषता यह है कि वे शुद्ध दृष्टि के धारी हैं, सूक्ष्म स्वभाव धारी कमों के बंधनों को क्षय करते हैं। आत्म ध्यान में मगन रहने पर सब कर्म क्षय होते हैं।
ज्ञान ध्यान तप में लीन रहने वाला साधु ही श्रेष्ठ होता है। गुरू स्व-पर उपकारी होते हैं वे अपना भी भला करते हैं, स्वयं मुक्ति मार्ग पर चलते हैं और सब भव्य जीवों का भला चाहते हैं, मुक्ति मार्ग बताते हैं। संसार में जीव अपने अज्ञान से कर्म बंधन में बंधा है, उनके उपदेश से मिथ्यात्व कुज्ञान, शल्य से रहित होकर भव्यजीव सम्यकदृष्टि ज्ञानी ही कर्मों का क्षय करता है।
श्री गुरू सम्यकदृष्टि, सम्यज्ञानी व निर्दोष व्रती होते हैं इसलिये उनमें मिथ्यात्व, कुज्ञान, शल्य नहीं पाये जाते हैं, उनके उपदेश से भव्यजीव भी
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