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________________ ********* *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी है फिर कोई भ्रम भय शंका नहीं रहती। ज्ञानी ज्ञायक निर्भय अभय होकर भाव मोक्ष की साधना करता है। पुरुषार्थ पूर्वक सम्यक्चारित्र का पालन करता है, जिससे कर्मों का क्षय होने लगता है। मन से मुक्त हो जाना, छूट जाना ही भाव मोक्ष है। कर्मों का पूर्ण क्षय हो जाना द्रव्य मोक्ष है जो अपने समय पर होता है। यही सच्चे देव के स्वरूप को जानने की विशेषता है। प्रश्न- परम देव परमात्मा के स्वरूप को जानने से इन बातों का क्या सम्बंध है यह तो जीव की अपनी बात है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं परम देव परमिस्टी इस्टी संजोय विजय अनिस्टी 2 इस्टी अनन्त दिल्टी, विगर्त अनिस्ट सरनि नहु दिई ।। १४ ।। अन्वयार्थ - (परम देव) सिद्ध स्वरूप परमात्मा (परमिस्टी) परमेष्ठी पद के धारी परम इष्ट हैं (इस्टी संजोय) ऐसे इष्ट पद को संजोने साधना, आराधना, उपासना करने से (विओय अनिस्टी) अनिष्ट का वियोग नाश होता है, दुःख और संसार का कारण जो विभाव परिणमन है वह छूट जाता है (इस्टी) अपने इष्ट (अनन्त) अनंत चतुष्टय स्वरूप (दिस्टी) शुद्ध दृष्टि (विगतं अनिस्ट) सब अनिष्ट विला जाता है (सरनि नहु दिट्ठ) संसार परिभ्रमण नहीं दिखता, पर पर्याय देखने में नहीं आती। विशेषार्थ परमदेव सिद्ध स्वरूप ही परम इष्ट है, इस इष्ट को संजोने साधना आराधना, उपासना करने से सब अनिष्ट नाश हो जाते हैं। ऐसे अपने इष्ट अनंत चतुष्टय सिद्ध स्वरूप की दृष्टि होने से सब अनिष्ट छूट जाता है फिर संसार परिभ्रमण, पर पर्याय नहीं दिखती, अपना परम इष्ट परम देव सिद्ध स्वरूप ही दिखता है, जो प्रत्येक जीव का अपना सत्स्वरूप है। परम देव परमात्मा सिद्ध स्वरूप को जानने निर्णय करने से यह ज्ञान होता है कि अपना स्वरूप व समस्त जीवों का स्वरूप स्वभाव से परम देव परमात्मा सिद्ध स्वरूप ही है । वर्तमान पर्याय में अशुद्धि रागादि कर्म संयोग है, इसका नाश क्षय होने पर स्वयं परमात्मा हो सकते हैं। गृहस्थ अवस्था में परमात्म दशा प्राप्त नहीं होती, पंच परमेष्ठी पद के माध्यम साधन द्वारा दिव्य शक्ति प्रगट होती है। जिनकी दशा जीवन मुक्त हुई है वे अरिहंत देव परमात्मा हैं। उनके चार घातिया कर्मों का अभाव - ३१ गाथा १४ ----- हो चुका है व अंतर समाहित निज अनंत शक्ति, अनंत चतुष्टय प्रगट हुए हैं, वे तीन काल व तीन लोक को एक समय में प्रत्यक्ष जानते हैं। सिद्ध परमेष्ठी, अपने सिद्ध स्वरूप को दर्शित करने में दर्पणवत् निमित्त हैं, निज शुद्ध स्वरूप ही साधने योग्य है। स्वयं में अनंत शक्ति, अनंत चतुष्टय अव्यक्त रूप से विद्यमान है। अपने इष्ट निज शुद्धात्मा की साधना, आराधना, उपासना करने से सब अनिष्ट अशुद्ध पर्याय कर्मादि का नाश होता है, निज परमात्म स्वरूप प्रगट होता है। अशरीरी सिद्धों की जाति का परमात्म स्वरूप ही मैं हूँ। जो सिद्ध परमदेव पूर्ण परमात्मा हुए हैं उनके कुल का मैं भी उत्तराधिकारी हूँ, ऐसा दृढ़ श्रद्धान, ज्ञान होने पर चार गति में परिभ्रमण करने का कलंक छूट जाता है। संसार पुण्य-पाप आदि अनिष्ट कर्मों का संयोग विला जाता है। सर्वज्ञदेव परमात्मा ने एक समय में तीन काल व तीन लोक जाने हैं व मेरा भी जानने का ही स्वभाव है। जो होनी है वह बदल नहीं सकती, पर जो होना है, उसका मैं तो मात्र जानने वाला हूँ। मैं पर की पर्याय को तो बदलने वाला नहीं परंतु अपनी पर्याय को भी बदलने वाला नहीं हूँ क्योंकि आत्मा या परमात्मा किसी का कुछ नहीं कर सकता। आत्मा अरस अरूपी अस्पर्शी ज्ञानानंद स्वभावी ज्ञायक है और परमात्मा पूर्ण वीतरागी अपने में परिपूर्ण अनन्त चतुष्टय धारी पूर्ण परमानंद में हैं । जिसने केवलज्ञान रूपी सूर्य की किरणों से अज्ञान का नाश कर दिया है। नौ केवल लब्धि के प्रकाश से परमात्म पद पाया है, जो केवलज्ञान केवलदर्शन सहित केवली हैं और योग सहित हैं उनको सयोग केवली परमात्मा कहते हैं। परमात्मा, परमदेव किसी ईंट व पाषाण के बने हुए मंदिर में नहीं मिलते। परमात्मा का दर्शन न किसी पाषाण या धातु या मिट्टी की मूर्ति में होगा, न किसी चित्र में होगा। अपना आत्मा ही स्वभाव से परमात्मा जिनदेव है। प्रत्येक जीव उसका दर्शन अपने भीतर कर सकता है तथा यह राग-द्वेष को छोड़ दे, शुभ-अशुभ राग त्याग दे, वीतरागी होकर अपने को आठ कर्म रहित, शरीर रहित, रागादि विकार रहित, अनंत चतुष्टयधारी परमात्म स्वरूप देखे तो सर्व अनिष्ट परभाव आदि संसारी चक्र से छूटकर परमात्मा हो जाता है। जब मोह का अंधकार दूर हो जाता है तब ज्ञान ज्योति का प्रकाश होता है। उसी समय अंतरंग में सहज सुख का अनुभव होता है तथा कृतकृत्यपना 货到
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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