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________________ गाथा-१३ ----- --- - 长地带些印章,亦 出长长长 ********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी * करने से आत्मज्ञान प्रगट होता है। आत्मा-अनात्मा का भेदविज्ञान पैदा होता है, जिससे निज शुद्धात्मानुभूति होकर सम्यक्ज्ञान का प्रकाश हो जाता है और यही आत्मज्ञान बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान हो जाता है। जैसे-दूज का चन्द्रमा नित्य बढ़ते-बढ़ते पूर्णमासी का चंद्रमा हो जाता है, वैसे यही ज्ञान केवलज्ञान मय स्वयं परमात्मा हो जाता है। जैसे- मछली अपने अंडों की सुरत रखती है तो वह अपने आप बढ़ते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान की स्मृति से परमात्म स्वरूप के बोध से केवलज्ञान प्रगट होता है। आत्मज्ञान सहित आत्मध्यान से ही मुक्ति होती है। जो कोई भव्यजीव अपने परमात्म स्वरूप को एकाग्रमन होकर ध्याता है, वह शीघ्र ही कमों से रहित सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा हो जाता है। कर्म प्रकृति में स्थित अज्ञानी जीव ही कर्मोदय जन्य पर्याय का भोक्ता बनता है और पर्याय का संग ही उसको ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है। जो जीव संपूर्ण क्रियाओं को सब प्रकार से कर्मोदय द्वारा ही होती हुई देखता है और अपने आपको अकर्ता देखता अनुभव करता है वही ज्ञाता है। जिस समय सम्यकदाधिशानी साधक दिव्यवधि से सब जीव और सब द्रव्यों का स्वरूप देखता है उस काल वह समभाव को प्राप्त परमात्मा होता है। अनादिकाल से यह जीव स्वभाव से समस्त कर्ममलों से रहित अविनाशी परमात्म स्वरूप ही है। यह शरीरादि संयोग में रहता हुआ भी न कर्ता है, न भोक्ता है, न लिप्त होता है। जैसे-सब जगह व्याप्त आकाश अत्यंत सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही शरीर में रहता हुआ परिपूर्ण आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होता। जैसे- एक ही सूर्य संपूर्ण संसार को प्रकाशित करता है वैसे ही शुद्ध चैतन्य आत्मा लोकालोक को प्रकाशित करता है। इस प्रकार जो ज्ञानरूपी * नेत्र से आत्मा-अनात्मा के भेदज्ञान को तथा कार्य कारण सहित कर्मोदय पर्याय 4से स्वयं को अलग जानते हैं, मानते हैं, स्वस्वभाव में लीन रहते हैं, वे स्वयं * परमात्मा हो जाते हैं। प्रश्न-क्षायिक सम्यकदर्शन, तीर्थकर केवली परमात्मा के पादमूल अर्थात् प्रत्यक्ष सामने होने पर होता है तथा कमाँ का क्षय और केवलज्ञान *** * * **** प्रगट होता है, सच्चे देव के स्वरूप को जानने मात्र से क्षायिक सम्यकदर्शन केवलज्ञान कैसे हो सकता है? ___ इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - विपनिक भाव स उत्तं, विपिओ कम्मान तिविहिजोएन। अन्यान मिच्छ विपनं, मल मुक्कं नंत दंसनं न्यानं ॥१३॥ अन्वयार्थ-(पिपनिक भाव) क्षायिक भाव (स उत्त) उसे कहते हैं (पिपिओ कम्मान) कर्मों का क्षय हो जाना (तिविहि जोएन) त्रिविध योग से, मन वचन काय तीनों को वश में कर लेना, जीत लेना (अन्यान) अज्ञान (मिच्छ) मिथ्यात्व (षिपन) क्षय हो गये, विला गये, नष्ट हो गये (मल मुक्क) मल से मुक्त हो जाना, छूट जाना (नंत) अनंत (दंसन) सम्यकदर्शन (न्यानं) सम्यक्ज्ञान। विशेषार्थ- आगम अपेक्षा क्षायिक सम्यकदर्शन केवली के पादमूल में होना बताया है। वर्तमान पंचमकाल में तीर्थकर होते नहीं, केवलज्ञान भी होता नहीं है परंतु मुक्ति मार्ग तो बंद नहीं है। अभी जीवों को सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तो होता है, क्षायिक भाव भी होता है अर्थात् अपने आत्म स्वरूप का दृढ अटल श्रद्धान तथा कर्मों का यथार्थ ज्ञान और उसका दृढ अटल विश्वास ही क्षायिक 9 भाव कहलाता है, जिससे त्रिविध योग, मन वचन काय की एकाग्रता पूर्वक कर्मों का क्षय हो जाता है। अज्ञान मिथ्यात्व भी छूट जाता, क्षय हो जाता है और मन से मुक्त हो जाता है, यही भाव मोक्ष कहलाता है। द्रव्य मोक्ष जब होना हो तब हो परंतु ज्ञानी को भाव मोक्ष तो अभी हो जाता है। क्षायिक भाव उसे कहते हैं जहाँ आत्मा को सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान के द्वारा अपने स्वरूप का दृढ निश्चय हो जाता है कि मैं ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा हूँ और यह एक-एक समय की पर्याय तथा जगत का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है. ऐसा अनुभूतियुत निर्णय होने से दृढ़ अटल श्रद्धान विश्वास हो जाता है, उसे ही क्षायिक भाव कहते हैं। क्षायिक भाव होने पर कर्मोदय जन्य पर्याय से भ्रमित होना, भयभीतपना मिट जाता है, इससे अज्ञान मिथ्यात्व भी क्षय हो जाता है और त्रिविध योग की साधना से कर्मों की भी निर्जरा, क्षय होने लगते हैं। सच्चे देव निज शुद्धात्मा के स्वरूप को जानने पर मुक्ति का मार्ग प्रारंभ हो जाता है। सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान होने पर वस्तु स्वरूप प्रत्यक्ष दिखने लगता E-5-15-30-52-8 HESHEHEN H
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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