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रोसे
*****-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-११,१२ ------ - -- समाधान - सच्चे देव के स्वरूप को जानने से अपने सत्स्वरूप शुद्धात्मा
विशेषार्थ- सच्चे देव परमात्मा की महिमा अपार है वे परमानंद मयी हैं, का बोध होता है। सच्चे देव-सिद्ध भगवान पूर्ण ज्ञानी हैं. परम वीतरागी हैं. उनके क्षायिक सम्यक्दर्शन के प्रभाव से अनंत चतुष्टय-अनंतज्ञान, अनंतदर्शन,
अतीन्द्रिय सुख के सागर हैं, अनंत वीर्यधारी हैं। जड़ संग रहित अमूर्तीक हैं,सर्व अनंतसुख और अनंतवीर्य प्रगट हो गया है। उनकी दिव्य ध्वनि से जगत के ॐ कर्म मल रहित निर्मल हैं, अपनी ही स्वाभाविक परिणति के कर्ता हैं, परमानंद के जीवादि समस्त पदार्थों के सत्स्वरूप का उपदेश होता है। वे परम वीतरागी
भोक्ता हैं, परम कृत कृत्य हैं, ऐसे देव को ही सिद्ध परमेश्वर शिव परमात्मा, सर्वज्ञ परमात्मा हैं, उनके एक समय के केवलज्ञान की पर्याय में तीन काल और परमदेव भगवान आदि कहते हैं, वे एकाकी आत्मारूप हैं। जैसे सिद्ध परमात्मा हैं- तीन लोक के समस्त द्रव्यों का त्रिकालवर्ती परिणमन प्रत्यक्ष झलकता है। उनके वैसे हीस्वभाव से प्रत्येक जीव आत्मा है। ऐसे अनंत जीव आत्मा अपने सत्स्वरूप प्रति सच्ची श्रद्धा, भक्ति होने से क्षायिक सम्यकदर्शन और अक्षय पद की प्राप्ति का श्रद्धान ज्ञान कर परम देव परमात्मा हो गये। सिद्ध परमात्मा अनंत हैं, ऐसे होती है। सच्चे देव के स्वरूप को जानकर जो जीव अपने शुद्धात्मा का अनुभव पूर्वक
जिसने अपने आत्मा को आत्मारूप और पर पदार्थ को पररूप जाना है ध्यान करता है। मुनि पद में अंतर-बाहर निम्रन्थ होकर पहले धर्मध्यान फिर तथा इस भेदविज्ञान से अक्षय व अनंत केवलज्ञान का लाभ किया है, वही सच्चा शुक्ल ध्यान को ध्याता है, वह शुक्ल ध्यान के प्रताप से पहले अरिहंत होता है देव परमात्मा है। उसके अनंत चतुष्टय प्रगट हो जाते हैं तथा सर्वज्ञता प्रगट होती फिर सर्व कर्ममल जलाकर सिद्ध होता है। ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग है, जिससे लोकालोक प्रकाशित होता है और जगत का त्रिकालवी परिणमन में जाकर सिद्ध आत्मा ठहरता है इसलिये सच्चे देव के स्वरूप को जानने से अपने उनके केवलज्ञान की एक समय की पर्याय में झलकता है। ऐसे सर्वज्ञ स्वभावी स्वरूप का बोध होकर परमात्म पद की प्राप्ति होती है।
केवलज्ञानी परमात्मा के स्वरूप का जो जीव श्रद्धान करता है और अपने आत्म प्रश्न- सच्चे देव के स्वरूप को जानने से भला होता है या सच्चे देव स्वभाव को भी ऐसा ही अनुभव करता है उसको क्षायिक सम्यकदर्शन और अक्षय की पूजा वंदना, भक्ति आराधना करने से भला होता है?
पद की प्राप्ति होती है। समाधान-सच्चे देव के स्वरूप को जानने से अपने सतस्वरूप का बोध
ऐसे परमदेव के स्वभाव की अनुमोदना करने से स्वयं में केवलज्ञान प्रगट होता है, जिससे स्वयं देव परमात्मा हो सकते हैं। पूजा, वंदना आदि से पुण्य बंध होता है इसको आगे गाथा में स्पष्ट करते हैंहोता है जो संसार का ही कारण है।
परम देव सुभावं, अन्मोयं देइ न्यान सहकारं । प्रश्न-सच्चे देव परमात्मा की और क्या विशेषता है?
न्यानेन न्यान विध, जं श्रुति विधति मच्छ अंडानं ॥ १२॥ इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - उवएस नंतनंतं, नंत चतुस्ट सुदिस्टि विमलं च ।
अन्वयार्थ - (परम देव सुभावं) परम देव के स्वभाव का (अन्मोयं)
अनुमोदन करना, आलम्बन करना, आश्रय करना (देइ न्यान) ज्ञान प्रगट होता मलं सुभावन दिई, विमल दिडिच देइ अषयं च ॥११॥
है (सहकार) सहयोग, स्वीकार करने से (न्यानेन न्यान विध) ज्ञान से ज्ञान बढ़ता अन्वयार्थ - (उवएस) उपदेश (नंतनंतं) जीवादि अनंत पदार्थ (नंत है अर्थात् केवलज्ञान प्रगट होता है (जं श्रुति) जैसे सुरत रखने से (विधंति) बढ़ते चतुस्ट) अनंत चतुष्टय-अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य (सुदिस्टि हैं (मच्छ अंडानं) मछली के अंडे । यह लौकिक विशेषता है कि मछली नदी के ॐ विमलंच) उनके निर्मल क्षायिक सम्यकदर्शन है (मलं सुभाव न दि8) कोई रागादि पू किनारे रेत में अंडे देकर पानी में चली जाती है, परंतु उनकी सुरत रखती है * से मलिन स्वभाव उनमें नहीं दिखता, पूर्ण वीतरागी ममल स्वभावी होते हैं (विमल जिससे वह अंडे अपने आप बढ़ते हैं यदि मछली उनकी सुरत भूल जाये तो अंडे
दिट्ठि) विमल दृष्टि, क्षायिक सम्यक्दर्शन (च) और (देइ अषयं च) अक्षय पद देते गल जाते हैं। हैं,प्राप्त कराते हैं।
विशेषार्थ - परमदेव परमात्म स्वभाव की अनुमोदना करने, स्वीकार
倍偿引答卷
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