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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
समाधान -
आत्मा स्वभाव से त्रिकाल शुद्ध, सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा है तथा सर्व जीव स्वभाव से सिद्ध, शुद्ध, मुक्त हैं परन्तु अनादि से अपने स्वरूप को भूले सभी जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा हैं । शरीरादि संयोग में, मैं, मेरापना और कर्ता बनकर इस चक्कर में फंसे हैं। जो जीव अपने सत्स्वरूप शुद्ध स्वभाव को जान लेता है, वह सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्र द्वारा आत्मा से परमात्मा हो जाता है।
प्रश्न- मुक्त होने के लिये जीव को क्या करना चाहिये ?
समाधान - मुक्त होने के लिये जीव को सबसे पहले भेदज्ञान पूर्वक अनुभूतियुत यह श्रद्धान करना चाहिये कि मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं हूँ और यह मेरे नहीं हैं, मैं एक अखंड अविनाशी चेतन तत्त्व भगवान आत्मा हूँ। इसके बाद तत्त्व निर्णय करके कि जिस समय जिस जीव का जिस द्रव्य का जैसा जो कुछ होना है वह अपनी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा उसे कोई भी टाल फेर बदल सकता नहीं है तथा मैं ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूँ और यह एक-एक समय की पर्याय व जगत का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है, जब जैसा जो कुछ होना है, हो रहा है और होगा इससे मेरा कोई संबंध नहीं है, ऐसा अनुभूतियुत निर्णय ही सम्यक्ज्ञान है इससे अपनत्व, कर्तृत्व मिट जाता है, इसके बाद अपने स्वभाव की साधना करके मुक्त हुआ जाता है।
प्रश्न- फिर इसमें बाह्य संयोग, शरीरादि क्रिया कर्म और मन का क्या होता है ?
समाधान- यह सब बाह्य संयोग शरीरादि क्रिया कर्म और मन जीव की पात्रता पुरुषार्थ के अनुसार अपने आप छूटते जाते हैं। भेदज्ञान तत्त्व निर्णय पूर्वक वस्तु स्वरूप को जान लेना प्रमुख है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान होने पर यह सब अपने आप छूटने लगते हैं। इसी साधना का क्रम इस उपदेश शुद्ध सार ग्रन्थ में दिया गया है कि साधक किस क्रम से, किस विधि से, किस साधना से सिद्ध पद पाता है। उपदेश शुद्ध सार का मूल विषय "आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ" इसको स्वीकार करके मन और कर्मोदय संयोग से छूटना, संसार परिभ्रमण से मुक्त होना ही जिनेन्द्र कथित सारभूत बात है।
प्रश्न- इसका क्रम क्या है ? इसमें सबसे पहले क्या जानना, समझना आवश्यक है ?
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गाथा १०-*-*-*-*-*-*
समाधान - सबसे पहले सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे धर्म और सच्चे शास्त्र के स्वरूप को जानना आवश्यक है। इनका सत् श्रद्धान होने पर अपने सत्स्वरूप का बोध होता है।
प्रश्न - सच्चे देव का स्वरूप क्या है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
देवं ऊर्थ सहार्थ, अर्थ स सहाय विगत अधुवं च । विगतं कुन्वान सहावं, न्यान सहावेन उवएसनं देवं ॥ १० ॥
अन्वयार्थ - (देवं) देव का (ऊर्ध सहावं ) ऊर्ध्वगामी स्वभाव होता है, श्रेष्ठ स्वभाव, शुद्ध स्वभाव (ऊर्धं स सहाव) ऊर्ध्वगामी स्वभाव है (विगत) रहित, छूटा हुआ, मुक्त (अधुवं च) अध्रुवता, अनित्यता (विगतं ) रहित, छूटा हुआ, मुक्त (कुन्यान सहावं) कुज्ञान स्वभाव से (न्यान सहावेन) जो ज्ञान स्वभावी है (उवएसनं) कहते हैं (देवं) देव ।
विशेषार्थ सच्चे देव का स्वरूप श्रेष्ठ शुद्ध ऊर्ध्वगामी स्वभाव वाला अध्रुवता से रहित, कुज्ञान भाव से रहित, जो मात्र ज्ञान स्वभाव केवलज्ञानी है उसे देव कहते हैं और ऐसा श्रेष्ठ ऊर्ध्वगामी स्व स्वभाव शुद्धात्मा है ।
सर्वज्ञ हितोपदेशी वीतरागी केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा को देव कहते हैं। सच्चे देव का स्वरूप शुद्ध स्वभावी, अधुवता से रहित ध्रुव शाश्वत, कुज्ञान भाव से रहित केवलज्ञान मयी वीतरागी परमानंद मयी परमात्मा होता है। निश्चय से स्व स्वभाव शुद्धात्मा ही सच्चा देव है, व्यवहार से अरिहंत सर्वज्ञ केवलज्ञानी परमात्मा महावीर आदि तीर्थंकर सच्चे देव हैं। सिद्ध परमात्मा परम देव हैं।
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सच्चा देव निश्चय से निज शुद्धात्मा है, जिसके आश्रय साधना आराधना करने से कर्मों का क्षय, पर्याय में शुद्धि होकर निज परमात्म स्वरूप प्रगट होता है। व्यवहार से वीतरागी, सर्वज्ञ, हितोपदेशी केवलज्ञानी, अरिहंत परमात्मा भगवान महावीर आदि सच्चे देव हैं, जिनके द्वारा अपने सत्स्वरूप शुद्धात्मा का बोध होता है, सत्य वस्तु स्वरूप जानने में आता है, जिससे जीव का अज्ञान भ्रम दूर होकर सत्यधर्म का प्रकाश होता है, ऐसे सच्चे देव का श्रद्धान, आराधन, वन्दना भक्ति करने से परिणामों में निर्मलता होने से सम्यक्दर्शन का प्रकाश होता है।
प्रश्न- सच्चे देव के स्वरूप को जानने से प्रयोजन क्या है ?
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