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________________ 克尔克·章返京返系些不解之 -*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी प्रश्न- यह मन तो बड़ा खतरनाक है, जब इसके द्वारा ऐसी दुर्दशा दुर्गति कर्मबंध होते हैं तो ऐसे मन होने से क्या फायदा है ? समाधान मन ही मनुष्य की विशेषता है- "मन एव मनुष्याणां कारण बंध मोक्षयोः " । मन होने पर ही मनुष्य को अच्छे-बुरे, हित-अहित का विचार होता है। मन के द्वारा ही नवीन कर्मों का बंध होता है, मन के द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। जीव की अज्ञान दशा में मन बंध का कारण है। ज्ञान दशा में मन के द्वारा मनन करके मुक्ति की प्राप्ति होती है। यह बात मनुष्य के विवेक पर आधारित है कि वह स्वाध्याय, सत्संग, संयम द्वारा मन का सदुपयोग कर ले। मन के द्वारा ही मनन-चिंतन विचार किया जाता है। अब जिस धारा में प्रवाह होगा, वैसा ही कार्य होगा। कुसंग द्वारा संसार परिभ्रमण होगा, सत्संग द्वारा मुक्ति होती है। - प्रश्न जब मन के द्वारा सब कार्य होता है, फिर जीव की क्या विशेषता है ? समाधान - संसार में अज्ञान दशा में मन की सत्ता शक्ति काम करती है। मन के आधीन जीव दुर्गति भोगता है, परंतु जब जीव जाग जाता है तब उसे स्व सत्ता शक्ति का बोध हो जाता है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान होने पर मन कुछ नहीं कर सकता फिर मन की नहीं चलती है, आत्मा परमात्मा की चलती है। मन कर्मोदय जन्य पर्याय है क्षणभंगुर नाशवान अचेतन है। जीव अज्ञान दशा में मिथ्यादृष्टि रहता है, तब तक ही मन की चलती है, मन के आधीन रहता है। सम्यक्दर्शन, ज्ञान होने से जीव स्वयं परमात्मा हो जाता है। चेतनशक्ति से ही मन सक्रिय रहता है, वैसे स्वरूप में रहने पर मन की कोई सत्ता अस्तित्व नहीं है, यही जीव की विशेषता है। - मानव वही पास जिसके कि मन है, मन पर कि क्या है ? यह वह विधाता । सहकार पाकर कि जिसका निसंशय, मानव महा नर्क में ठौर पाता ।। पर जो पुरुष पूर्ण पुरुषार्थ मय हैं, निस्तेज अपने मन वे बनाते । चैतन्य में ही कि लवलीन हों वे, परमात्मा की परम ज्योति पाते ॥ प्रश्न- वास्तव में यह मन है क्या और क्या-क्या करता है ? समाधान - यह मन कर्मोदय जन्य पर्याय है और अंतःकरण रूप में जीव के सामने चलता है, बाहर कुछ दिखाई नहीं देता, भीतर ही भीतर लहरें चलती हैं। जैसे- टी.वी. में कुछ नहीं है, सब लहरें, हवायें आती हैं और वह उसमें २७ गाथा-९ *-*-*-*-* दिखाई देती हैं, जो भी जिस तरह का कार्यक्रम होता है वैसा ही सब दिखता है, इसी प्रकार जैसे कर्मोदय निमित्त संयोग होते हैं, मिलते हैं वैसी ही मन रूपी लहरें चलने लगती हैं और उपयोग के सामने जीव को दिखाई देने लगती हैं। मन, माया मोह के द्वारा भयभीत भ्रमित बेहोश करता है। संकल्प-विकल्प से दुःखी, चिंतित, मदहोश करता है। इष्ट-अनिष्ट मानना, सुखी-दुःखी, संतुष्ट असंतुष्ट रहना, निडर निर्भय रहना, भयभीत रहना, शल्य विकल्प करना सब मन के काम हैं। जिसने भेदज्ञान, तत्त्व निर्णय द्वारा वस्तु स्वरूप जान लिया वह ज्ञानी इससे भिन्न निर्विकारी न्यारा ज्ञायक रहता है। अज्ञानी एकमेक हुआ अपने को ऐसा ही मानता है। यह मन हवा, लहरें, तूफान, सम- - विषम, उद्वेग रूप से चलता है। प्रश्न- सम्यदृष्टि ज्ञानी को भी मन बीच में बाधा डालता है ? समाधान • सम्यकदृष्टि ज्ञानी को प्रथम भूमिका अव्रती और व्रती दशा तक ही मन बाधा डालता है। वीतरागी महाव्रती साधु होने पर फिर मन कुछ नहीं करता, शांत शून्य हो जाता है, वैसे ग्यारहवें गुणस्थान तक मन की सत्ता है । क्षायिक सम्यक्दर्शन होने पर क्षय होने लगता है और केवलज्ञान होने पर मन विला जाता है। ज्ञानी मन को जीत लेता है फिर मन बाधा नहीं डाल पाता। - प्रश्न- इस मन की इतनी सत्ता शक्ति क्यों है ? समाधान - अनादि से जीव के साथ मोहनीय कर्म का निमित्त नैमित्तिक संयोग संबंध है। उसकी सत्ता शक्ति के अनुसार ही वर्तमान में सारा परिणमन चल रहा है। द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म सब इसके सहयोगी साथी इसी के आधीन चलते हैं। अनादि से अज्ञानी जीव, मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों के आधीन मिथ्यादृष्टि बना संसार में रुल रहा है। इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम होने पर ही जीव को अपने स्वरूप का बोध सम्यक्दर्शन होता है। अब जो जीव जाग जाता है, जिसे निज शुद्धात्म स्वरूप का अनुभूतियुत भेदज्ञान, तत्त्व निर्णय हो जाता है वह अपनी सत्ता शक्ति जगाकर पुरुषार्थ पूर्वक इन कर्मों को निर्जरित क्षय करता हुआ आगे बढ़ता है। पूर्ण परमात्मा केवलज्ञान होने पर यह कर्म क्षय हो जाते हैं तभी मन विलाता है क्योंकि मन ही मोहनीय कर्म की पर्याय है। प्रश्न - जब आत्मा त्रिकाल शुद्ध, सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा, परमात्मा है और प्रत्येक जीव का यह सत्स्वरूप है फिर यह सब चक्कर क्या है और क्यों है ? *
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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