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________________ 5 ***** श्री उपदेश शुद्ध सार जी इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - मनुवा मन उववन्न, मन सहकारेन दुग्गए पत्तं । मनु विलयं ससहावं, ग्रहनं उववन्न चेयना जुत्तं ॥९॥ अन्वयार्थ - (मनुवा) मन से, चाह से (मन उववन्नं) मन पैदा होता है (मन सहकारेन) मन का सहकार करने, मन के आधीन रहने से (दुग्गए पत्त) दुर्गति का पात्र, दुर्गति में पतन होता है (मनु विलय) मन विला जाता है, लीन होना (ससहावं) स्व स्वभाव में रहने से (ग्रहनं) ग्रहण करने (उववन्न) प्रगट होना, पैदा होना (चेयना) चेतना (जुत्तं) युक्त होने, लीन रहने। विशेषार्थ - मन की चाह से मन पैदा होता है, मन के आधीन मनुष्य महान पाप बांधकर दुर्गति का पात्र बनता है। जो जीव अपने स्व स्वभाव शुद्धात्मा को ग्रहण करता है, अनुभूति करता है, अपने चैतन्य स्वरूप में लीन रहता है उसका मन विला जाता है। जो संकल्प-विकल्प करे, तर्क-वितर्क करे, कार्य-कारण का विचार करे, शिक्षा उपदेश समझ सके उसको ही मन कहते हैं। हर एक मनुष्य को मन होता है, जिन जीवों को निज शुद्धात्मानुभूति स्व स्वरूप का ज्ञान नहीं होता वे बहिरात्मा जीव मन के आधीन संसार शरीर भोगों में ही लिप्त रहते हैं। उनका मन इतना नीच हो जाता है जिससे वे दूसरों का अहित करके अपना भला चाहते हैं, मन से दूसरों का अहित ही सोचा करते हैं, दूसरों की बढ़ती देखकर ईर्ष्या भाव करते हैं, ऐसे मनुष्य मन के अशुभ विचारों से ही पाप बांध करके दुर्गति चले जाते हैं। मन के आधीन मनुष्य में दम्भ करना, घमंड करना, क्रोध करना, ईर्ष्या द्वेष रखना, कठोरता होना और अविवेक का होना यह दुर्गुण रहते हैं। मन से मन पैदा होता है, धन से धन पैदा होता है, तन से तन पैदा होता है, कन (धान्य) से कन पैदा होता है, यह प्रकृति का नियम है। मन पांचों इन्द्रियों का राजा है, शरीर इसका सेनापति है, मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृति-३ मिथ्यात्व और २५ कषाय, इसकी सेना है। माया इसकी पत्नी रानी है जो कंचन, कामिनी, कीर्तिरूप से जीव को संसार में भटकाती है। जब तक मोहनीय कर्म अथवा राग है तब तक मन सक्रिय जीवित रहता है। भेदज्ञान सम्यकदर्शन होने पर शरीर और मन से जीव को अपने स्वरूप * की भिन्नता भासित होती है। वीतरागता होने पर मन शांत होता है। केवलज्ञान ARTI004 होने पर मन विला जाता है। ग्यारहवें गुणस्थान तक मन अपना काम करता है। मोहनीय कर्म के क्षय होने पर ही मन विलाता है। जीव को अपने परमात्म स्वरूप का बोध होने पर मन से भिन्नता का भान होता है। अपने चैतन्य स्वरूप धुव तत्त्व शुद्धात्मा में लीन रहने पर मन विला जाता है। केवलज्ञान में ही मन का विलय है, जब तक केवलज्ञान नहीं होता तब तक मन की सक्रियता रहती है और वह जीव को भ्रमाती, घुमाती भयभीत करती रहती है। जिस जीव को अपने स्वरूप का बोध नहीं है वह मन के आधीन दुर्गति ही भोगता है। मन मनुष्य को न जीने देता है, न मरने देता है, बीच में लटका कर बड़ी दुर्दशा, दुर्गति करता है। भय, चिंता, दु:ख, संकल्प-विकल्प यह सब मन में होते हैं, मन ही करता है, अज्ञानी जीव को अपने स्वरूप का बोध न होने से इसमें ही एकमेक रहता अपने को भयभीत चिंतित दु:खी मानता है जबकि यह जीव स्वयं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा है। जैसे - स्फटिक मणि में जैसी डाक लगती है वैसी ही दिखाई देती है, परंतु वह तो बिल्कुल श्वेत शुद्ध स्वच्छ है। इसी प्रकार मन और उपयोग की संधि और भिन्नता है। अंत: करण मन की जैसी स्थिति होती है वैसा अज्ञानी जीव अपने को मानने लगता है, पर वास्तव में वह वैसा है नहीं। आत्मा तो शुद्ध ममल स्वभावी शुद्धात्मा परमात्मा है और मन कर्मोदय जन्य पर्याय है। जो जीव भेदज्ञान पूर्वक शरीरादि और मन से अपने को भिन्न जानता है, वह शुद्धोपयोग की साधना करके मन से छूट जाता है, पूर्ण ज्ञान शुद्धोपयोग होने पर मन विला जाता है। प्रश्न- एकेन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय तक मन नहीं होता फिर वहाँ तो यह जीव ऐसी दुर्गति नहीं भोगता होगा क्योंकि मन के द्वारा ही ऐसी दुर्दशा होती है? समाधान - एकेन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय तक मन नहीं होता, वहाँ तो यह जीव घोर मूर्छा में बिल्कुल ही अचेत रहता है। एकेन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय तक के जीवों की क्या दुर्दशा, दुर्गति होती है, यह तो प्रत्यक्ष सामने है। एकेन्द्रिय स्थावर काय-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति और निगोदिया जीवों की क्या दुर्दशा, दुर्गति होती है, अनुभव प्रमाण है। दो इन्द्रिय-इल्ली, केंचुआ, लट आदि। तीन इन्द्रिय-चींटी, खटमल,जू आदि। चार इन्द्रिय-मच्छर, मक्खी आदि और असैनी पंचेन्द्रिय में, पानी का सांप और कुछ पक्षी इनकी क्या स्थिति है यह तो अनुभव गम्य है। वहाँ तो तीव्र मिथ्यात्व से बिल्कुल मूर्च्छित दशा है, वहाँ तो घोर दुर्गति दुर्दशा ही है। HI-E-HEERE * २६ HHHE
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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