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克-華克·箪业-童惠-尕惠-帘不希
-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
इच्छा करने मात्र से सब ऐश्वर्य प्राप्त कराता है। इसी प्रकार चिंतामणि रत्न के समान अपना रत्नत्रय स्वरूप है जो भव्यजीवों को वांछित परमानंदमयी परमात्म पद देने वाला है। प्रथम पच्चीस मल दोषों से रहित शुद्ध सम्यक्दर्शन है, दूसरा संशय, विभ्रम, विमोह रहित स्व-पर का भेदविज्ञान करने वाला शुद्ध सम्यक्ज्ञान है, तीसरा सम्यक्चारित्र अपने स्वभाव में लीन होना है, तपश्चरण करना ही मोक्ष सिद्ध पद को देने वाला है।
सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तीनों की एकता मोक्षमार्ग है तथा तीनों की पूर्णता मोक्ष है। मैं शुद्धात्मा हूँ ऐसा अनुभूतियुत श्रद्धान निश्चय सम्यक्दर्शन है, यही ज्ञान निश्चय सम्यक्ज्ञान है, इसी अपने शुद्ध स्वभाव में लीन रहना निश्चय सम्यक् चारित्र है। एक आत्मानुभव ही निश्चय रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग है।
याचे सुरतरु देय सुख, चिंतत चिंता रैन ।
बिन याचे बिन चिन्तवे, धर्म सकल सुख दैन ॥
जगत में चिंतामणि रत्न मिले या स्वर्ग में रत्नों के ढेर मिलें तो उससे जीव का कुछ भी कल्याण नहीं है, सम्यक्दर्शन रत्न अपूर्व कल्याणकारी है ।
मिथ्यात्व दशा में अज्ञानी जीव को कितना ही कुछ मिल जाये, इन्द्र और चक्रवर्ती पद पाने के बाद भी मन की कल्पना, चाह, तृष्णा से जीव निरंतर दुःखी रहता है । सम्यक्दर्शन के बिना संसारी जीव को कितना ही कुछ भी मिले, करे पर उसका मन कभी शांत, तृप्त नहीं होता, हमेशा चाह और तृष्णा की दाह में जलता रहता है, संकल्प-विकल्प करके आकुल-व्याकुल होता रहता है, परंतु अपना रत्नत्रय स्वरूप यह सम्यक्दर्शन रत्न मिलते ही सारे दुःख भय चिंता समाप्त हो जाते हैं। सम्यक्दर्शन रूपी रत्न मिलते ही अट्ठावन लाख योनियों के जन्म-मरण का चक्र छूट जाता है। अंतर रत्नत्रयमयी शुद्ध स्वभाव पर दृष्टि होते ही वह न तो भव को बिगड़ने देती है और न भव को बढ़ने देती है। पूर्व अज्ञान दशा में जो कर्म बांधे हैं, सम्यकदृष्टि उन कर्मों का ज्ञान स्वभाव की भावना द्वारा नाश कर डालता है। ज्ञानी की दृष्टि तो संसार से छूटने की है अत: वह राग रहित निवृत्त स्वभाव की मुख्य भावना व आदर में सावधानी से प्रवृत्त रहता है। उसका मन भी शांत हो जाता है और कर्म भी क्षय हो जाते हैं।
जब मन का संग सर्वथा छूट जाता है तब स्वभाव की पूर्णता प्राप्त होती है। अंतर्जल्प विकल्प का छूट जाना ही साधक दशा है तथा परमात्म
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गाथा ८ *-*
दशा साध्य है।
आत्मा तथा अन्य तत्त्वों की विपरीत दृष्टि ही संसार का कारण है। राग तो राग है, स्वभाव तो स्वभाव है, निमित्त तो निमित्त है, जो ऐसे स्वतंत्र तत्त्व की रुचि नहीं करता । शुभाशुभ भाव व क्रिया तथा पुण्य से धर्म मानता है वह मिथ्यादृष्टि है, इसका फल संसार में रुलना है।
जिन्होंने पुरुषार्थ द्वारा मोह का नाश किया है अर्थात् पर की सावधानी, व्यवहार की रुचि छोड़ दी है व ज्ञान मात्र निज स्वभाव की सावधानी रखते हैं वे सिद्ध दशा को पाते हैं। ज्ञान मात्र के सिवाय अन्य किसी उपाय से कल्याण नहीं होता । भगवान आत्मा पूर्णानंद से परिपूर्ण स्वभाव है, इस स्वभाव के साधन से ही जीव की मुक्ति होती है।
सद्गुरू कहते हैं कि तू मन वचन काय की क्रिया को मोक्ष का उपाय मत जान । जहाँ किंचित् भी विकल्प है या कुछ भी पर पदार्थ पर दृष्टि है वह शुभराग है और बंध का कारण है, कर्म की निर्जरा का कारण नहीं है; इसलिये तू सर्व प्रपंच जाल व चिंता छोड़कर निश्चल होकर एक अपने ही आत्मा की तरफ लौ लगा, उसी का ध्यानकर, उसी का मनन कर, उसी में लीन रह एक शुद्ध आत्मा के • अनुभव से उत्पन्न ज्ञानानंद रस का पानकर, व्यवहार चारित्र को व्यवहार मात्र समझ, बिना निश्चय चारित्र के उसका कोई लाभ मोक्षमार्ग में नहीं है। व्यवहार मुनिया श्रावक का संयम ठीक-ठीक शास्त्रानुसार पालकर भी यह अहंकार मत कर कि मैं मुनि हूँ, मैं क्षुल्लक हूँ, मैं ब्रह्मचारी हूँ, मैं धर्मात्मा श्रावक हूँ। व्यवहार क्रिया आचरण से धर्म या मुक्ति मानना ठीक नहीं है। शुद्धात्मानुभव ही मुनिपना है, वही श्रावकपना है, वही जिनधर्म है, ऐसा समझकर ज्ञानी को शरीराश्रित क्रिया में अहंकार नहीं करना चाहिये। जो निश्चय नय की प्रधानता से अपने को सिद्ध भगवान के समान शुद्ध, त्रिकाल के सर्व कर्म रहित, विकल्प रहित, मतिज्ञानादि रहित, एक सहज केवलज्ञान स्वरूप, आनंद, परमानंद स्वरूप मानकर सर्व अन्य भावों से उदास हो जाता है वही मुक्ति मार्ग का पथिक है।
आत्मा को आत्मा के द्वारा ग्रहण कर जो निश्चल होकर आत्मा का अनुभव करता है वही आत्मा का दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप करता हुआ कर्म की निर्जरा कर शीघ्र मोक्ष नगर में पहुँच जाता है।
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प्रश्न -यह मन तो बीच में बहुत बाधा डालता है, इसके लिये क्या किया जाये ?
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