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________________ गाथा-८ * ** * *** E-5-16: E-E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * का स्वामी हूँ, न मैं किसी का सेवक हूँ, न कोई मेरा सेवक है, न मैं किसी का ध्यान * करता हूँ, न किसी का पूजन करता हूँ, न किसी को दान देता हूँ, मैं ध्यान, पूजा, दानादि कर्म से भिन्न निराला शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ। अशुद्ध निश्चय नय से कहे जाने वाले रागादिभावों से, अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से कहे जाने वाले कार्माणादि शरीरों के संबंध से, उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से कहे जाने वाले स्त्री-पुत्रादि चेतन व धन गृहादि अचेतन पदार्थों से मैं भिन्न हूँ। सद्भूत व्यवहारनय से कहे जाने वाले गुण-गुणी के भेदों से भी मैं दूर हूँ। मैं सर्व व्यवहार की रचना से निराला एक परम शुद्ध आत्मा हूँ। ज्ञायक एक प्रकाशमान परम निराकुल, परम वीतरागी अखंड द्रव्य हूँ, मेरे में बंध व मोक्ष की कल्पना भी नहीं है। सदा ही तीन काल में एक अबाधित नित्य परम निर्मल चेतन तत्त्व हूँ। इस तरह मनन करके जो अपने आत्मस्वरूप रत्नत्रय को ग्रहण करके अपने में स्थित हो जाता है, वह मन के चक्र से छूटकर शुद्धात्मा को उपलब्ध होकर निर्वाण का स्वामी हो जाता है। शरीर और मन के चक्र से छूटने के लिये आवश्यक साधन निम्न हैं १. मानित्व का न होना, २. दम्भित्व का न होना, ३. अहिंसा, ४. क्षमा, ५. सरलता, ६. सद्गुरू की सेवा, ७. बाहर भीतर की शुद्धि, ८. स्थिरता और मन का वश में होना,९. इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य का होना, १०. अहं भाव न होना, ११. जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोगों में दु:ख रूप दोषों को बार-बार देखना, विचार करना, १२. आसक्ति रहित होना, १३. स्त्री पुत्र घर आदि में घनिष्ट संबंध (विशेष स्नेह) न होना, १४. अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का नित्य समरस रहना, १५. शुद्धात्म स्वरूप में अटल दृढ़ श्रद्धा भक्ति होना, १६. एकांत में रहने का स्वभाव होना, १७. जन समुदाय में प्रीति का न होना (जनरंजन राग), १८. अध्यात्म ज्ञान में नित्य निरंतर रहना, १९. तत्त्व ज्ञान के अर्थरूप निज शुद्ध स्वरूप का अनुभव करना, २०. निरंतर शुद्धात्म स्वरूप का स्मरण-ध्यान करना, देखना। इस प्रकार अपने आप से, अपने आपमें परमात्म तत्त्व का अनुभव करना ही मुक्ति मार्ग है, इसी से शरीर और मन का संबंध छूटता है। जैसे राग की मंदता मोक्षमार्ग नहीं, जैसे व्यवहार सम्यक्दर्शन मोक्षमार्ग * नहीं या मोक्ष का कारण नहीं, वैसे ही उनके साथ प्रवर्तित परसत्तावलम्बी ज्ञान भी न तो मोक्षमार्ग है और न ही मोक्ष का कारण है। स्वसत्ता को अनुभव में लेने की योग्यता वाला ज्ञान ही मोक्ष का कारण है। ज्ञानानुभूति, आत्मानुभूति, यही मोक्ष का कारण है। आत्मा का निर्विकल्प अनुभव करने को तत्पर जीव प्रथम शुद्धनय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, पर द्रव्य की ममता से रहित हूँ, ज्ञान दर्शन से परिपूर्ण, ज्ञायक स्वभावी शुद्धात्मा हूँ ऐसा निश्चय करता है। ऐसे निश्चय में पांच इंद्रियों के विषयों के विकल्प से हटकर मन के विकल्प में आया है परंतु यह मन का विकल्प छोड़ने योग्य है। वह आगे बढ़ता हुआ मन संबंधी विकल्पों का भी शीघ्र वमन कर निर्विकल्प होता है, निजानंद, ज्ञानानंद स्वभाव में डुबकी लगाता है। सम्यज्ञान के आभूषण रूप परमात्म तत्त्व में मन आदि के विकल्प समूह नहीं है, ऐसे आत्मा को अंतर में पहिचानना, पहिचान कर अनुभूतियुत श्रद्धा करना, इसी का नाम धर्म है। आत्म ध्यान के अतिरिक्त अन्य सब कुछ संसार का मूल है । एक ज्ञान स्वरूप प्रभु को ही ध्येय बनाकर ध्यान करना, इनके सिवाय शेष सब शुभ व अशुभ भाव मन के संकल्प-विकल्प घोर संसार के मूल हैं। प्रश्न-जब सब शुभाशुभ भाव संसार के मूल हैं तो मुक्ति का कारण क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - रयन रयन सरूवं, चिंतामनि सुखदंसनं विमलं । विन्यान न्यान सुद्धं, चरनं संजुत्त सहाव तवयरनं ॥८॥ अन्वयार्थ - (रयन) रत्न, बहुमूल्य श्रेष्ठ, इष्ट उपादेय (रयन सरूवं) रत्नत्रय स्वरूप है, सम्यक्दर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यकृचारित्र ही रत्नत्रय स्वरूप है (चिंतामनि) चिंतामणि, अमूल्य रत्न (सुद्ध दंसनं) शुद्ध सम्यकदर्शन (विमलं) जो विमल, पच्चीस मल दोषों से रहित है (विन्यान) भेदविज्ञान पूर्वक (न्यान सुद्ध) शुद्ध सम्यक्ज्ञान-संशय, विभ्रम, विमोह रहित (चरनं) सम्यक्चारित्र (संजुत्त) लीन होना (सहाव) स्वभाव में (तवयरनं) तप का आचरण करना, धारण करना। विशेषार्थ - मुक्ति का कारण-चिंतामणि रत्न के समान अपना रत्नत्रयमयी स्वरूप है। शुद्ध सम्यक्दर्शन, शुद्ध सम्यकज्ञान पूर्वक अपने स्वभाव में लीन होना सम्यक्चारित्र है। इन तीनों सहित तपश्चरण करना मुक्ति का कारण है। जगत में लोग चिंतामणि रत्न को बहुमूल्य श्रेष्ठ और इष्ट मानते हैं क्योंकि वह EDURES KARKI HOSTS
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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