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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
सम्यक् दर्शन महारत्न है, शुद्ध आत्मा की निर्विकल्प प्रतीति ही सर्वरत्नों में महारत्न है। लौकिक रत्न तो जड़ है परंतु देह से भिन्न केवल शुद्ध चैतन्य का भान होकर सम्यक्दर्शन प्रगट हो वही महारत्न है।
प्रश्न- इस मन के प्रपंच से छूटकर अपने शुद्धात्म स्वरूप को उपलब्ध करने के लिये क्या करना चाहिये ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
जे जे सहाव उतं, ते ते अनुभवइ असुह सुह जननं ।
जे केवि न्यान सुद्धं विन्वानं जानंति अप्प परमप्पं ॥ ७॥ अन्वयार्थ (जे जे ) जो जो (सहाव) स्वभाव (उत्तं) कहे गये हैं (ते ते) वह वह (अनुभवइ) अनुभव करो (असुह) अशुभ (सुह) शुभ (जननं ) जानने में आना, पैदा होना (जे) जो (केवि) कोई भी (न्यान) ज्ञान (सुद्धं) शुद्ध (विन्यानं ) भेदविज्ञान पूर्वक (जानंति) जानते हैं (अप्प) आत्मा (परमप्पं) परमात्मा है। विशेषार्थ मन का जो जो स्वभाव कहा गया है कि वह तो शुभ और अशुभ भाव ही करता है, हमेशा संकल्प-विकल्प ही चलते रहते हैं, वह सब प्रत्यक्ष अनुभव में आता है। मनुष्य मन के आधीन हमेशा शुभ और अशुभ भावों का ही अनुभव करते हैं। जो कोई भी मानव शुद्ध ज्ञान का धारी है वह भेदविज्ञान के द्वारा जानता है कि आत्मा परमात्मा है, मैं ममल शुद्ध स्वभाव का धारी शुद्धात्मा हूँ, वही इस मन के प्रपंच से छूटकर अपने शुद्ध आत्मा को उपलब्ध होता है।
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जगत में मानवों के साधारण रूप से दो प्रकार के स्वभाव देखने में आते हैं या तो उनके तीव्र कषाय के उदय से अशुभ भाव होते हैं या मंद कषाय से शुभ भाव होते हैं।
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हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, अन्याय, अत्याचार, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अशुभ भाव कहलाते हैं, यही अशुभोपयोग पापबंध और दुःख का कारण है । दया, क्षमा, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, संतोष, दान, परोपकार, संयम, तप आदि शुभ भाव कहलाते हैं, यह शुभोपयोग पुण्य बंध और सुख का कारण है। मन जैसे संग और वातावरण में रहता है वैसे ही भाव करता है और मन के आधीन मनुष्य इन्हीं के चक्कर में घूमता रहता है।
जो कोई भी मानव भेदविज्ञान पूर्वक शरीरादि से भिन्न अपने आत्म स्वरूप को जानता है कि मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, शुद्ध ज्ञान का धारी सिद्ध स्वरूपी
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गाथा ७ ***-*-*
शुद्धात्मा हूँ, वही इस मन के चक्कर से छूटकर शुद्धात्मा को उपलब्ध होकर मुक् पाता है।
मन का कार्य संसारी माया मोह भ्रमजाल प्रपंच में फंसा कर चारगति चौरासी लाख योनियों में घुमाना है। जो अज्ञानी जीव अपने सत्स्वरूप को नहीं जानता वह इस मन के चक्कर में घूमता सुखी-दुःखी होता जन्म-मरण करता रहता है। जिनके भीतर शुद्ध आत्मज्ञान का प्रकाश हो गया है वे भेदविज्ञान के द्वारा अपने आत्मा को परमात्म स्वरूप परमशुद्ध अनुभव करते हैं।
मन के भंवर से छूटने के लिये भेदज्ञान पूर्वक, स्व-पर को जानना चाहिये कि यह शरीरादि नोकर्म, मन आदि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों से भिन्न मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ। यह सब शरीरादि संयोग और मन भी जड़ अचेतन पुद्गल द्रव्य हैं। मैं चेतन अरस अरूपी अस्पर्शी ज्ञानानंद स्वभावी जीवद्रव्य हूँ । मन को शांत स्थिर करने के लिये वैराग्य भावना, बारह भावनाओं का चितवन करना चाहिये क्योंकि मन आगे-पीछे के, संसारी कामना - वासना के संकल्प - विकल्प करता है। अपने आत्म स्वरूप का चिंतवन, वैराग्य भावना करते-करते मन शांत स्थिर होकर आत्मस्थ हो जाता है। प्रथम भूमिका में साधक का उपयोग कुछ क्षण के लिये स्थिर आत्मस्थ होता है, फिर मन सक्रिय होकर संकल्प-विकल्प करने लगता है, इसको शांत समता में ज्ञायक रहकर देखना चाहिये और शुद्ध दृष्टि समभाव में रहना चाहिये। द्रव्य दृष्टि से वस्तु स्वरूप का विचार करना चाहिये ।
जब साधक के मन में राग-द्वेष उठ आयें तब वह शांत भाव से क्षणभर के लिये अपने आत्मा में स्थिर होकर आत्मा के शुद्ध स्वभाव की भावना करे ।
मेरा शुद्ध स्वभाव, सात तत्त्व नौ पदार्थों के व्यवहार से निराला है। नर, नारक, देव, तिर्यंच गति आदि के भीतर कर्मों के उदयवश नाना प्रकार के बनने वाले भेष व उनमें नाना प्रकार काय की, वचन की, मन की संकल्प-विकल्प रूप क्रियायें सब मेरे शुद्धात्म स्वरूप के परिणमन पूर्वक भिन्न हैं, जगत का सर्व व्यवहार मन, वचन, काय तीन योग से व शुभ-अशुभ उपयोग से चलता है। मेरे शुद्ध उपयोग में व निश्चल आत्म प्रदेशों में इनका कोई संयोग नहीं है इसलिये मैं इन सबसे भिन्न निराला हूँ। न मेरा कोई मित्र, बंधु है, न कोई शत्रु है, न मेरे कोई माता-पिता हैं, न मैं किसी का माता-पिता हूँ, न मेरा कोई स्वामी है, न मैं किसी
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