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*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
है। साधक की श्रद्धा वहीं होती है जिसे वह सर्वश्रेष्ठ इष्ट समझता है। श्रद्धा होने पर वह अपने द्वारा निश्चित किये हुए सिद्धांत के अनुसार स्वाभाविक जीवन बनाता है और अपने सिद्धान्त से कभी विचलित नहीं होता ।
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मन को वश में करने, निग्रह करने के दो उपाय हैं१. अभ्यास ( योग साधना ), २. वैराग्य (ज्ञान साधना ) ।
ज्ञानमार्ग - अध्यात्म उपासना में चिन्तन का कोई आधार न होने से इंद्रियों का सम्यक् संयम हुए बिना (जरा भी आसक्ति रहने पर) मन विषयों में जा सकता है और विषयों का चिंतन होने से पतन होने की अधिक सम्भावना रहती है। इंद्रियों को केवल बाहर से ही वश में नहीं करना है, प्रत्युत विषयों के प्रति साधक के अंत:करण में भी राग नहीं रहना चाहिये क्योंकि जब तक विषयों में राग है तब तक स्वरूप स्थिरता नहीं हो सकती। शरीर सहित सम्पूर्ण पदार्थों और कर्मों में वासना, अहं भाव का अभाव तथा परम पारिणामिक भाव रूप सच्चिदानंद घन परमात्मा में अभिन्न भाव से निरंतर दृढ़ स्थित रहना ही उपासना करना है। साधक दो प्रकार के होते हैं
१. जो सत्संग श्रवण और शास्त्राध्ययन के फलस्वरूप साधन में प्रवृत्त होते हैं, उनको अपने साधन में अधिक क्लेश कठिनता होती है।
२. जिसकी साधना में स्वाभाविक रुचि तथा संसार से स्वाभाविक वैराग्य होता है उनको अपने साधन में क्लेश नहीं होता, सहजता रहती है।
साम्प्रदायिकता का पक्षपात बहुत बाधक है, सम्प्रदाय का मोह पूर्वक आग्रह मनुष्य को बांधता है और इससे राग-द्वेष होते हैं।
साधक जब स्वरूप स्थिरता का उद्देश्य रखकर बार-बार स्वरूप स्मरण करता है तब उसके मन में दूसरे अनेक संकल्प भी पैदा होते रहते हैं, अतः साधक को अपने ध्रुवतत्त्व, शुद्धात्मा का लक्ष्य रखना चाहिये, इस प्रकार की दृढ़ धारणा करने से अन्य सब संकल्प-विकल्प बिला जाते हैं।
साधक का यदि प्रारंभ से ही यह दृढ़ निश्चय हो कि मुझे मुक्त होना है, अन्य कुछ भी करना चाहना नहीं है, चाहे लौकिक दृष्टि से कुछ भी बने या बिगड़े अब मुझे संसार से कोई मतलब नहीं है तो उसे बहुत जल्दी स्वरूप स्थिरता हो सकती है। जैसे- भूख सबकी एक सी ही होती है और भोजन करने पर तृप्ति का अनुभव भी सबको एकसा ही होता है परंतु भोजन की रुचि सबकी भिन्न-भिन्न होने के कारण भोज्य पदार्थ भी भिन्न-भिन्न होते हैं। इसी तरह साधकों की
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गाथा-६ *-*-*-*-*
रुचि, विश्वास योग्यता के अनुसार साधन भी भिन्न-भिन्न होते हैं, परंतु स्वरूपानंद की अनुभूति तो सबको एक जैसी ही होती है । इच्छा भोजन जसु उछाह ऐसो सिद्ध स्वभाव । तत्त्व का मनन करने वाले जिस मनुष्य का शरीर के साथ अपनापन नहीं रहा वह मुनि कहलाता है। मन को शांत, संयमित रखने के निम्न उपाय हैं -
१. सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, देश काल घटना आदि को लेकर मन में राग और द्वेष पैदा न होने दें।
२. अपने स्वार्थ और अभिमान को लेकर किसी से पक्षपात न करें।
३. मन को सदा दया, क्षमा, उदारता आदि भावों से परिपूर्ण रखें। ४. मन में प्राणी मात्र के हित का भाव हो ।
५. जो शरीर के लिये हितकारक एवं नियमित भोजन करने वाला है, सदा एकांत में रहने के स्वभाव वाला है, किसी के पूछने पर कभी कोई हित की उचित बात कह देता है अर्थात् बहुत ही कम बोलता है। जो सोना और घूमना बहुत कम करने वाला है, इस प्रकार जो शास्त्र की मर्यादा के अनुसार खान-पान विहार आदि का सेवन करने वाला है, वह साधक बहुत ही जल्दी चित्त की प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है।
नैतिकवान कुल, धन संपन्नता, निरोग शरीर तथा दीर्घ आयु यह सभी पाकर भी अंतर में उत्तम सरल स्वभाव को पाना दुर्लभ है। परिणामों में तीव्र वक्रता हो, महा संक्लिष्ट परिणाम हों, क्रोध मान माया लोभ की तीव्रता हो, तो धर्म का विचार कैसे हो ? विषय कषाय का लम्पटी हो तथा सरल मंद कषाय रूप परिणाम न हों वह तो धर्म पाने योग्य पात्र ही नहीं है। बहुत से जीवों को सरल परिणाम होने पर भी सत्समागम मिलना दुर्लभ है, वीतरागी जिन शासन के तत्त्व को समझाने वाले का सत्समागम मिलना अतिदुर्लभ है। मनुष्य भव की ऐसी दुर्लभता जानकर अब तो चैतन्य आत्मा को ही ध्येय बना लेना योग्य है। मन के अंदर प्रवेश करना ही मंदिर में प्रवेश करना है, जहाँ परमात्मा के दर्शन होते हैं, तभी मन विलय होता है। जिसने निज सत्स्वरूप शुद्धात्मा का लक्ष्य नहीं किया, चैतन्य स्वरूप को ध्येय न बनाकर केवल पर को ही ध्येय बनाया है वह जीव स्व विषय से विमुख होकर पर विषयों में रमता है, जो अमूल्य चिंतामणि रत्न को पाकर व्यर्थ गंवा देता है। जैसा कहा है
यह मानुष पर्याय, सुकुल सुनियो जिनवाणी । इहि विधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानी ॥
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