________________
गाथा-६
***
*
**
KREENER
EMEMES
क
* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * देता है और गंदी वस्तु को उठा लेता है, इसी प्रकार बड़े प्रयत्न से मनुष्य सत्संग * द्वारा वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा जिनेन्द्र देव की वाणी सुनता है, जो रत्नत्रय धर्म * अमूल्य चिंतामणि रत्न है, परंतु मन की नीचता, चपलता, चंचलता के कारण * उसे छोड़ देता है और संसाराशक्त, विषयाधीन होकर दुर्गति का पात्र बन जाता है।
प्रश्न-मन की ऐसी क्या विशेषता है, जो मनुष्य को पराधीन बनाये है?
समाधान - मूल में मनुष्य का अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होना है जिसके कारण यह शरीर ही मैं हूँ ऐसा मानता है तथा पांचों इंद्रियों के विषय भोगों में लिप्त संसारी कामना, वासना होने से मनुष्य पराधीन रहता है । अज्ञानी मनुष्य आत्मा के सत्स्वरूप को जानता ही नहीं है और मन, माया-मोह से ग्रसित क्षणभंगुर नाशवान विचारों का प्रवाह निरंतर संकल्प-विकल्प करता है, इनमें उलझा मनुष्य पराधीन, चिंतित, भयभीत दु:खी रहता है। मन की यह विशेषता है कि वह मनुष्य को हमेशा घुमाता रहता है, निरंतर सक्रिय रहता है और संकल्प रूप भविष्य की योजनायें बनाता है या विकल्परूप बीती हुई बातों का, कार्यों का विश्लेषण कर राग-द्वेष पैदा करता है। वर्तमान में न जीने देता है, न अपने हित की बात सुनने देता है। यह हमेशा संसार व्यवहार मोह माया में ही घुमाता रहता है।
प्रश्न-मन का वास्तविक स्वरूप क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - मनुवा मनुव सहावं, असुह संगेन रयनि मनि मुक्कं । जे जान मनुव विपनं, रयनं मन रूव भेय संकलियं ॥६॥
अन्वयार्थ - (मनुवा) मन (मनुव सहावं) मनुष्य का स्वभाव है (असुह संगेन) अशुभ संग से (स्यनि मनि मुक्कं) रत्नत्रय मणि रूपी धर्म छूट जाता है (जे) जो, कोई (जान) ज्ञान, बुद्धि पूर्वक (मनुव) मनुष्य (विपन) छोड़ देते हैं (रयन) रत्नत्रय को (मन) मन (रूव) रूप, रूपी पदार्थ (भेय) भय विकल्प (संकलिय) संकलन करना, इकट्ठा करना, नाना प्रकार विचार।
विशेषार्थ - मन मनुष्य का विशेष स्वभाव है। सामान्य मनुष्यों के मन अनेक प्रकार के होते हैं। किसी का निर्बल, किसी का सबल, किसी का भयभीत, कायर प्रमादी, किसी का निर्भय दृढ़ संकल्पवान होता है। अशुभ संग से अमूल्य चिंतामणि रत्नत्रय धर्म छूट जाता है। जो मनुष्य बुद्धि पूर्वक रत्नत्रय धर्म को छोड़
देते हैं, सत्संग से विमुख रहते हैं, उनका मन नाना प्रकार के रूपी पदार्थों संसार शरीर भोगों का भेद विकल्प, विचार करता रहता है, जिससे मनुष्य का जीवन बड़ा अस्त, व्यस्त, त्रस्त रहता है।
मोह माया से ग्रसित, क्षणभंगुर, नाशवान विचारों को मन कहते हैं, यह निरंतर संकल्प-विकल्प करता है । मोहनीय कर्म की पर्याय ही मन है, यही इसका वास्तविक स्वरूप है। मन को अंत:करण कहते हैं। इसके चार भेद हैं- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार।
१. विचारों का प्रवाह मन है। २. निर्णय करने वाली बुद्धि है। ३. धारणा शक्ति को चित्त कहते हैं। ४. कषाय की तारतम्यता अहंकार है।
मन संबंधी अठारह दोष -
१. आलस्य, २. अनियमित निद्रा, ३. विशेष आहार, ४. उन्माद प्रकृति, ५. माया प्रपंच,६. अनियमित काम,७. अकरणीय विलास, ८. मान, ९. मर्यादा से अधिक काम, १०. आत्म प्रशंसा,११. तुच्छ वस्तु से आनंद, १२. रस गारव लुब्धता, १३. अति भोग, १४. निष्कारण कमाई, १५. दूसरे का अनिष्ट चाहना, १६. बहुतों का स्नेह, १७. अयोग्य स्थान में जाना, १८. एक भी उत्तम नियम का पालन नहीं करना।
मन के कार्य -
१. विचार, २. संकल्प विकल्प, ३. चंचलता, ४. पंचेन्द्रिय विषय, ५. भय, ६. कामना, ७. भोग, ८. प्रवृत्ति, ९. संसारी प्रपंच में सक्रियता, १०. मोह माया में लिप्त रहना।
साधक से भूल यह होती है कि वह स्वयं परमात्मा में म लगकर अपने मन बुद्धि को परमात्मा में लगाने का अभ्यास करता है, स्वयं परमात्मा में 9 लगे बिना मन बुद्धि को परमात्मा में लगाना कठिन है क्योंकि मन बुद्धि छ कर्मोदय जन्य पर्याय है, इसलिये साधकों की यह व्यापक शिकायत रहती
है कि मन बुद्धि परमात्मा में नहीं लगते,यही भ्रम अज्ञान है। मन बुद्धि एकाग्र होने से सिद्धि समाधि आदि तो हो सकती है परंतु कल्याण स्वयं के परमात्मा में लगने से ही होगा। उपयोग का अपने ममल स्वभाव, परमात्म स्वरूप में रहने से ही कों का क्षय होता है,पर्याय शुद्ध होती है। साधक का हर समय धुव तत्त्व की ओर दृष्टि रखना,शुद्ध तत्त्व के सम्मुख रहना ही उपासना है।
जहाँ प्रेम होता है, वहाँ मन लगता है। जहाँ श्रद्धा होती है, वहाँ बुद्धि लगती २१
-E-E
E-ME
E-