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________________ गाथा-५ -- - ---- -- 3-62-8--8-2 ********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी * ज्योतिष की पाप-पुण्य बंधक क्रियाओं की विशेष चर्चा करते हैं। अध्यात्म ग्रन्थों * की न चर्चा करते हैं, न पढ़ते हैं, न सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं। निश्चयनय से अपना ही आत्मा अपना इष्ट आराध्यदेव है, ऐसा दृढ विश्वास नहीं कर पाते हैं। अनेक पंडित आत्मज्ञान बिना केवल विद्या के घमंड में व क्रिया कांड के पोषण में ही जन्म गंवा देते हैं। जिनके मिथ्यात्व का व अनंतानुबंधी कषायों का बल ढीला पड़ता है उन्हीं भव्य जीवों को तत्त्वरुचि होती है। जिनके भीतर संसार के मोह जाल से कुछ उदासी होती है वे ही आत्मीक तत्त्व की बातों को ध्यान से सुनते हैं, सुनकर विचार करते हैं, धारण करते हैं। जिनके भीतर गाढ रुचि होती है, वे ही निरंतर शुद्ध आत्म तत्त्व का चिन्तवन करते हैं। आत्मध्यानी बहुत थोड़े हैं, इनमें भी निर्विकल्प समाधि पाने वाले स्वानुभव करने वाले दुर्लभ हैं। आत्मज्ञान अमूल्य चिंतामणि रत्न है, मानव जन्म पाकर उसके लाभ का प्रयत्न करना जरूरी है। जिसने आत्मज्ञान की रूचि पाई उसने ही निर्वाण जाने का मार्ग पा लिया,यही सम्यकदर्शन है। जब बुद्धि सूक्ष्म विचार करने की हो, तब प्रमाद छोड़कर भेदविज्ञान का मनन करें। जैसे पानी और कीचड़ से कमल भिन्न है, वैसे ही यह आत्मा द्रव्य कर्म, भावकर्म और नोकर्म से भिन्न है। बार-बार अभ्यास के बल से सम्यक्दर्शन का प्रकाश होगा, तब अनादि का अज्ञान अंधकार मिटेगा, सम्यज्ञान प्रगट होगा। जन्म-मरण के संकटों को मिटाने वाला, जिनवर कथित यह आत्मज्ञान ही अमूल्य चिंतामणि रत्न है। यद्यपि यह दुर्लभ तथापि इसी के लिये पुरुषार्थ करना व इसे प्राप्त कर लेना ही मानव जीवन का सार है। सर्व संसारी प्राणियों को काम भोग संबंधी कथा बहुत सुगम है क्योंकि अनंतबार सुनी है, अनंतबार उनकी पहिचान की है और अनंतबार विषयों का अनुभव किया है। दुर्लभ है तो एक परभाव रहित व अपने एक स्वरूप में तन्मय ऐसे शुद्धात्मा की बात, इसी को प्राप्त होना कठिन है, क्योंकि मनरूपी पक्षी, अनेक संकल्प-विकल्प, भेदभाव, भ्रम पैदा करता है, अपने आत्म स्वरूप की ओर बढ़ने नहीं देता, जरा कुछ देखने सुनने में आया कि लेकर उड़ जाता है। यह * मन बड़ा चंचल, अस्थिर, चपल है। जब तक यह शांत स्थिर नहीं होता, तब तक अपने आत्म स्वरूप का चिंतन-मनन ध्यान नहीं हो सकता । जैसे-सरोवर का निर्मल पानी जब पवन के द्वारा डांवाडोल होता है, तब उसमें अपना मुख नहीं दिखता, परंतु जब तरंग रहित निश्चल होता है, तब अपना मुख दिख जाता है। ***** * * *** इसी तरह राग-द्वेष, मोह माया रूपी मन की चंचलता मिटते ही अपना आत्मा आपको स्वयं दिख जाता है, आत्मा का अनुभव हो जाता है। प्रश्न-यह मन क्या है? समाधान- मन मनुष्य की विचार करने की शक्ति है, इसके द्वारा मनुष्य नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करके कर्मों से बंधता है। प्रश्न-यह मन है क्या, इसका स्वभाव क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंतस्य सहावं उत्तं, नीचं संगेन कुमय उववंनं । नीचं चरइ सुचरियं, मनि रयनं विमुकिय तंपि ॥ ५॥ अन्वयार्थ -(तस्य) उसके, मन के (सहावं) स्वभाव को (उत्तं) कहते हैं (नीचं) नीच के (संगेन) संग में,संगति से (कुमय) कुमति, खोटी बुद्धि (उववंनं) पैदा होती है (नीचं) नीच के, अशुभ बुरे लोगों के (चरइ) आचरण करने, साथ रहने (सुचरियं) सदाचरण, सत्संग रूपी (मनि रयन) रत्नत्रय धर्म, चिंतामणि रत्न (विमुक्कियं) छूट जाता है, विला जाता है (तंपि) तत्काल, शीघ्र ही। विशेषार्थ- मन का स्वभाव चंचल होता है। जैसा निमित्त, संयोग, वातावरण, परिस्थिति मिलती है, मन वैसे ही विचार करने लगता है। नीच संग से कुबुद्धि पैदा होती है, नीच आचरण से सदाचार संयम आत्मज्ञान रूपी चिंतामणि रत्न रत्नत्रय धर्म शीघ्र ही छूट जाता है। मन मनुष्य कीजाग्रत शक्ति है, जिसके द्वारा मनुष्य का वर्तमान जीवन और भविष्य बनता है। पांच इंद्रियों के साथ मन का होना ही संझी पंचेन्द्रियपना कहलाता है, मन पांचों इन्द्रियों का राजा कहलाता है। मनुष्य जैसे वातावरण संयोग में रहता है, मन वैसे ही विचार करता है। नीच संगति से कुबुद्धि पैदा होती है, उच्च श्रेष्ठ सत्संग से सुबुद्धि पैदा होती है। मन ही मनुष्य के संसार बंधन का कारण है, मन ही मोक्ष का कारण है। अच्छी संगति से अच्छे व बुरी संगति से बुरे भाव हो जाते हैं। नीच संगति से कुमति पैदा हो जाती है, कुमति से मनुष्य नीच आचरण करने लगता है, जिससे भले प्रकार से आचरण में लाया हुआ सदाचार संयम और अमूल्य रत्नत्रय धर्म छूट जाता है। जैसे-चील या गिद्ध पक्षी चिंतामणि रत्न लेकर उड़ रहा हो और नीचे गंदी चीज देखता है, तो वह उस चिंतामणि रत्न को छोड़ *长者俗,层层剖答卷 HESHESENA २०
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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