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गाथा-४
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*-* - * श्री उपदेश शुद्ध सार जी
लेकर घूमता ही रहा । स्टैन्ड कन्डेक्टर ने पूछा भाई तुम्हें कहाँ जाना है ? वह * बोला- इसका मुझे निर्णय, विचार ही नहीं है। इसी प्रकार हमें कहाँ जाना है, * क्या होना है ? इसका विचार निर्णय करना और फिर उस मार्ग पर चलना कार्यकारी है।
सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र मय आत्मा ही निश्चय से एक मोक्ष का मार्ग है, जो कोई अपने आत्मा में अपनी स्थिति करता है, उसी को ध्याता है, उसी का अनुभव करता है, उसमें ही निरंतर विहार करता है, अपने आत्मा के सिवाय अन्य आत्माओं को, सर्व पुद्गलों को, धर्म, अधर्म, आकाश, काल चार अमूर्तीक द्रव्यों को व सर्व ही परभावों को स्पर्श तक नहीं करता, वही निश्चय नित्य उदय रूप समयसार शुद्धात्मा का अनुभव करता है । वास्तव में यह आत्मानुभव ही मोक्षमार्ग है। भेदविज्ञान की शक्ति से अपने आत्मा के साथ जिन-जिन का संयोग है उन-उनको आत्मा से भिन्न विचारकर उनका मोह छोड़ देना ही, परद्रव्य और संयोग का त्याग है।
मोक्ष अपने ही आत्मा का शुद्ध स्वभाव है तथा उसका उपाय भी केवल एक अपने ही शुद्ध आत्मा का ध्यान है । बाह्य क्रिया कर्म इसमें सहकारी साधन नहीं हैं, वह तो उस भूमिकानुसार स्वयमेव होते हैं। सब संयोग और बंधनों से छूट जाना ही मुक्ति है और वह सच्ची समझ सम्यज्ञान पूर्वक ही होती है। इस संसार का परम बीज एक मिथ्यादर्शन है इसलिये मोक्ष के सुख को चाहने वालों को मिथ्यादर्शन का त्याग करना उचित है।
रुचि अनुगामी पुरुषार्थ होता है। मति अनुसार गति होती है। जिसकी मति और रूचि चैतन्य स्वरूप भगवान आत्मा में न होकर राग और पर में होगी, उसे संसार में ही भटकना पड़ेगा।
सिद्ध भगवान में जैसी सर्वज्ञता, जैसी प्रभुता, जैसा अतीन्द्रिय आनंद और जैसा आत्म पुरुषार्थ है वैसी ही सर्वज्ञता प्रभुता आनन्द और आत्म पुरुषार्थ निज आत्मा में है। एक बार इसका स्वाभिमान, बहुमान आ जावे कि मेरा आत्मा ऐसा परमात्म स्वरूप है, ज्ञानानंद शक्ति से भरपूर है । इस उमंग उत्साह से संसार परिभ्रमण छूट जाता है, सारे कर्म क्षय हो जाते हैं।
प्रश्न- यह बात सुनते हैं तब बड़ा आनंद उत्साह आता है, आत्म * पुरुषार्थ जागता है, परंतु वह ठहरता नहीं है, जहाँ बाहर की हवा लगी और
वह सब विला जाता है, इसका क्या कारण है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - जिनवयन उवएस, केई पुरिसस्य मनि रयन वित्थरनं। मनुवा पंषि अनेयं, चंचु आक्रिनि लेवि सं उडियं ॥४॥
अन्वयार्थ - (जिनवयनं) जिनवचन, जिनेन्द्र के वचन, जिनवाणी (उवएस) उपदेश, सत् शिक्षा, उद्देश्य (केई) कोई (पुरिसस्य) विशेष व्यक्ति, भव्यजीव, पुरुष प्रधान (मनि) मणि, चिंतामणि (रयन) रत्न (वित्थरन) विस्तार करता है, प्रकाश करता है, संभालकर रखता है (मनुवा) मन (पंषि) पक्षी, पंछी (अनेयं) अनेक, भिन्न-भिन्न, नय विकल्प (चंचु) चोंच (आक्रिनि) आकर्षण, परिणाम, कर्ण, सुनकर (लेवि) लेकर, ग्रहणकर (सं उडियं) उड़ जाता है।
विशेषार्थ-यह जिनवाणी का उपदेश, अपने शुद्धात्म स्वरूप की चर्चा कोई विरले भव्यजीव ही ग्रहण करते हैं। यह आत्म ज्ञानरूपी अमूल्य चिंतामणि रत्न प्राप्त करना और इसे संभाल कर रखना, इसका प्रकाश करना बड़ा दुर्लभ है क्योंकि मन रूपी पक्षी अनेक नय, भेद, विकल्प करता है, सुनने समझने नहीं देता । जरा इधर-उधर कुछ दिखाई दिया, आवाज सुनने में आई इतने में ही लेकर उड़ जाता है।
जिनवाणी का उपदेश मिलना बड़ा कठिन है, कोई विरले पुरुष ही इस अनुपम तत्त्व का लाभ कर पाते हैं। यह अमूल्य चिंतामणि रत्न, आत्मज्ञान का मिलना बड़ा कठिन है और इसका विस्तार करना, संभाल कर रखना मुश्किल है। मन रहित पंचेन्द्रिय तक के प्राणी विचार करने की शक्ति बिना आत्मा-अनात्मा का भेद नहीं जान सकते हैं। सैनी पंचेन्द्रियों में नारकी जीव रात-दिन तीव्र कषायों में लगे रहते हैं, उनमें किसी विरले जीव को ही आत्मज्ञान होता है। पशुओं में भी आत्मज्ञान पाने का साधन दुर्लभ है। देवों में विषय भोग की अति तीव्रता है, किन्हीं को आत्मज्ञान होता है। मानवों के लिये साधन सुगम है तो भी बहुत दुर्लभ है। जिनवाणी को सुनना, समझना, धारण करना कोई विशेष भव्यजीव को ही सुलभ होता है।
अनेक मानव रात-दिन शरीर की क्रिया में ऐसे तल्लीन रहते हैं कि उनको आत्मा की बात सुनने का अवसर ही नहीं मिलता है। जिनको अवसर मिलता है वे भी व्यवहार में इतने फंसे होते हैं कि व्यवहार धर्म के ग्रन्थों को ही पढ़ते सुनते हैं। अनेक बड़े विद्वान पंडित हो जाते हैं। न्याय, व्याकरण, काव्य, पुराण, वैद्यक,
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