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गाथा-३
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * शरीर के मरण को अपना मरण, शरीर की स्थिति को अपनी स्थिति मान रहा है। * शरीर से भिन्न मैं चैतन्य प्रभु हूँ, आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, यह खबर इसे * बिल्कुल नहीं है । कर्मों के उदय से जो भावों में क्रोध, मान, माया, लोभ या * राग-द्वेष, मोह होते हैं उन भावों को अपना मानता है, अपने को उनका कर्ता
मानता है। इसी तरह पाप-पुण्य के उदय से शरीर की अच्छी या बुरी अवस्था होती है, उसे अपनी ही अच्छी या बुरी अवस्था मान लेता है । जो धन कुटुम्ब, मकान, आभूषण, वस्त्र आदि पर द्रव्य हैं, उनको अपना मान लेता है। इस तरह नाशवंत कर्मोदय की भीतरी व बाहरी अवस्थाओं का अहंकार तथा ममकार करता रहता है। अपने स्वभाव का अपनी सत्ता शक्ति का बोध बिल्कुल नहीं है। जैसे कोई व्यक्ति मदिरा पीकर बावला हो जावे, अपना नाम अपना घर ही भूल जावे वैसे ही यह मोही प्राणी अपने सच्चे स्वरूप को भूला हुआ है। चारों गतियों में जहां भी जन्मता है, वहाँ ही अपने को नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देव मान लेता है, जो पर्याय क्षणभंगुर नाशवान एक समय की है उसको स्थिर मान लेता है, इस कारण तत्त्व का सत् श्रद्धान नहीं होता है। जिनेन्द्र परमात्माओं की यही देशना है कि इस संसार परिभ्रमण से मुक्त होओ, छूटो यही उपदेश शुद्ध सार है। चारों गतियों में शारीरिक व मानसिक दु:ख हैं। सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कथित वस्तु स्वरूप का सम्यक् अवगाहन करना, सांगोपांग समझना ही साधकपना है।
जगत के समस्त जीव सुख की इच्छा करते हैं, परन्तु सुख कहाँ है, क्या है? इसका विचार नहीं करते, वे दुःख की इच्छा नहीं करतेपरंतु दु:ख के कारणभूत अज्ञान, मिथ्यात्व आदि में निरंतर संलग्न रहते हैं। सुख का साधन उपाय तो आत्मा का सम्यक्श्रद्धान ज्ञान करके उसमें एकाग्र होना है। आत्मा ही परम सुख, परम शांति,परम आनंद का धाम रत्नत्रयमयी अनंत चतुष्टय का धारी परमात्मा है। चैतन्य स्वभाव सुख से परिपूर्ण है, उसका विश्वास करके उसकी जितनी भावना करें उतना सुख प्रकट हो। पर संयोग की भावना में तो भय, चिंता, दुःख
है। अज्ञान व राग-द्वेष से आत्मा को दुःख होता है, उसे चैतन्य स्वभाव का भान * व वीतरागता प्रगटकर बचाना ही आत्मा की दया है। आत्मा में होने वाले रागादि
भाव ही हिंसा है व उन रागादि भावों की अनुपपत्ति का नाम दया अहिंसा है। *जगत में पूर्णता को प्राप्त परमात्मा अनंत हैं। अंतरात्मा साधक जीव भी अनादि *से ही हैं तथा बहिरात्मा भी अनादि ही से हैं। जगत में कोई भी पहले या बाद में * नहीं हैं, सभी समान रूप से अनादि अनंत हैं। प्रत्येक जीव में परमात्मा, अंतरात्मा,
बहिरात्मापने की शक्ति विद्यमान है। अपने स्वरूप, सत्ता, शक्ति का बोध कर जाग जाना ही हितकारी है। भगवान आत्मा पूर्णानंद से परिपूर्ण स्वभाव है, इस स्वभाव के साधन से ही जीव की मुक्ति होती है। स्वभाव साधन द्वारा ही वह स्वभाव जानने में आता है। रागादिभाव, शरीरादि संयोग से भेद करने पर, स्वभाव का आश्रय लेने से सम्यक्त्व होता है।
भगवान सर्वज्ञ जिनेन्द्र परमात्माओं की दिव्य ध्वनि से निकली हुई वीतराग वाणी, भव्य जीवों के भव का अंत करनेवाली है, जिसे इस बात का विश्वास और प्रतीति है, उस जीव की काललब्धि पक गई है।
संसार के परिभ्रमण से छूटना ही मनुष्य भव की सार्थकता और उपदेश शुद्ध सार है। अनादि कालीन संसार में यह संसारी जीव अनादि से ही मिथ्यादर्शन से अंधा होकर भटक रहा है। मिथ्यादृष्टि संसारासक्त प्राणियों को संसार भ्रमण में दु:ख ही दु:ख होता है इसलिये भव्य जीवों को अपने आत्मा पर करुणा लाना चाहिये, इस बात का विचार करना चाहिये कि अब आत्मा संसार क्लेशों को न सहे, भव वन में न भ्रमे, भवसागर में न डूबे, जन्म, जरा-मरण के घोर क्लेश न सहे, इनसे छुड़ाकर मुक्ति के अतीन्द्रिय आनंद का रसपान कराना, परमानंद में रहते हुए आत्मा से परमात्मा होना ही उपदेशशुद्ध सार है। यही सब संत, महात्मा भगवंतों का उपदेश है।
में आतम शबातम, परमातम सिख समान। शायक ज्ञान स्वभावी चेतन, चिदानन्द भगवान हूँ॥ अपना भ्रम अज्ञान ही अब तक, बना हुआ संसार है। सिख परम पद पाना ही, उपदेश शुख का सार है॥
प्रश्न-संसार परिभ्रमण से छूटने के लिये तो संसार, संयोग, पाप, विषय, कषाय, परिग्रह आदि छोड़ना पड़ेगा । व्रत, नियम, संयम धारण करना पड़ेगा, साधु होंगे तभी मुक्त हो सकते हैं,मात्र विचार करने से क्या होता है?
समाधान - हमें कहाँ जाना है, क्या होना है ? हम क्या हैं, कौन हैं? जब तक इस बात का विचार निर्णय न होगा, तो बाहर से यह सब छोड़ने, करने से क्या होगा? जैसे- एक व्यक्ति बाहर से तैयार होकर झोला लेकर मोटर स्टैंड पर पहुँच गया, प्रत्येक मोटर वाले से वह पूछे कि यह बस कहाँ से आई है, कहाँ जायेगी, कब पहुँचेगी, क्या किराया लगेगा ? सुबह से शाम हो गई, वह झोला
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