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गाथा-३
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H-1-*-*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
समाधान - अपने ज्ञान श्रद्धान में कचाहट, कमजोरी है। वस्तु स्वरूप * पर दृढ अटल श्रद्धान विश्वास नहीं हो रहा कि मैं ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूँ और
एक-एक समय की पर्याय जगत (सब जीव, सब द्रव्यों) का परिणमन त्रिकालवर्ती क्रमबद्ध निश्चित अटल है। जैसा सर्वज्ञ परमात्मा के केवलज्ञान में झलका है वैसा ही सब हुआ, हो रहा है और होगा, इससे अपना कोई संबंध नहीं है। ऐसा सत्श्रद्धान, विश्वास न होने के कारण ही यह भय शल्य शंकायें होती हैं।
प्रश्न-इस कमजोरी कचाहट को दूर करने का क्या उपाय है?
समाधान - क्षायिक सम्यक्दर्शन और वीतरागता । जब तक यह पूर्ण शुद्ध न होंगे तब तक आंशिक कमजोरी, भयभीतपना रहेगा। इसमें जीव की पात्रता, पुरुषार्थ, होनहार की बात भी गर्भित है। पूर्व कर्म बंधोदय निमित्त भी सहकारी है। इन सब बातों का ज्ञान करके अपना पूरा पुरुषार्थ लगाना, आत्मबल जगाना और अपने ज्ञानानंद निजानंद सहजानंद में रहना, यही सहज उपाय है।
प्रश्न- क्षायिक सम्यकदर्शन इस काल में होता नहीं है, सामान्य सम्यकदर्शन भी दुर्लभ है, ऐसा आगम में बताया है, इसके लिये क्या किया जाये?
समाधान-आगम में किस अपेक्षा क्या कहा है, पहले यह जानना चाहिये, किसी बात को कहीं से सुनकर पढ़कर वैसी धारणा नहीं बनाना चाहिये, उस पर विचार चिन्तन करना चाहिये तथा अपने को देखना चाहिये कि अभी हम कहां, किस भूमिका, किस स्थिति में हैं। बिना आत्मज्ञान अनुभव के आगमज्ञान भ्रम पैदा करता है। वर्तमान में जो विषय चल रहा है, जैनागम का सार, जिनेन्द्र परमात्मा के उपदेश का शुद्ध सार क्या है? इस पर ध्यान रखना चाहिये,रुचि पूर्वक सुनना चाहिये। मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, ऐसे परमात्म स्वरूप के लक्ष्य से जो जीव सुनता है, उसे सुनते हुए उस जीव को अपने आत्मा परमात्मा का ही लक्ष्य रहता है। उसे चिंतवन में भी ऐसा जोर रहता है कि मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ उस
जीव को सम्यक् सन्मुखता रहती है। मन्थन में भी शुद्ध स्वरूप का ही लक्ष्य रहता ~ है, ऐसे जीव को ऐसी लगन लगती है उत्साह बहुमान आता है कि मैं आत्मा शुद्धात्मा
परमात्मा हूँ | अंतर में ऐसे दृढ संस्कार पड़ जायें कि जो फिर न बदलें, जैसे * सम्यकदर्शन होने पर अप्रतिहत भाव बतलाया है वैसे ही सम्यक् सन्मुखता में ऐसे * दृढ संस्कार पड़ते हैं कि उस जीव को सम्यकदर्शन की प्राप्ति निश्चित है और इसी
का दृढ, अटल, श्रद्धान विश्वास क्षायिक सम्यक्दर्शन है। 參考答考接著法答者各器
प्रश्न-उपदेश शुद्ध सार क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - उवएस सुद्ध सारं, सारं संसार सरनि मुक्तस्य । सारं तिलोय मइओ, उवइ8 परम जिनवरेंदेहि ॥३॥
अन्वयार्थ - (उवएस) उपदेश (सुद्ध सारं) शुद्ध सार है (सारं) सार है (संसार सरनि) संसार परिभ्रमण, जन्म मरण के चक्र (मुक्तस्य) मुक्त होना, छूटना (सारं) सार (तिलोय) तीन लोक (मइओ) सहित, श्रेष्ठ (उवइ8) उपदिष्ट किया, उपदेश दिया (परम जिनवरेंदेहि) परम जिनेन्द्र देवों ने।
विशेषार्थ- संसार के परिभ्रमण, जन्म-मरण के चक्र से छूटना, मुक्त होना ही उपदेश शुद्ध सार है। परम जिनेन्द्र परमात्माओं द्वारा उपदिष्ट तीन लोक में सारभूत एक ही बात है कि हे आत्मन, हे भव्य जीवो! इस संसार के परिभ्रमण से छूटो, मुक्त होओ। आत्मा शुद्धात्मा, परमात्मा, जिन जिनवर भगवान है।
जिनेन्द्र परमात्मा सर्वज्ञ देव कहते हैं कि आत्मा से शरीर, संसार या रागादि भावों का कोई संबंध है ही नहीं, प्रथम ऐसा निर्णय कर, इनसे मुक्त हो यही उपदेश शुद्ध सार है।
काल का चक्र अनादि से चला आ रहा है। भूत, भविष्य, वर्तमान यह तीन काल हैं। ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, मध्यलोक, यह तीन लोक हैं जिनमें ऊर्ध्वलोक में सोलह स्वर्ग, देवगति के जीवों का निवास स्थान है। अधोलोक में सात नरक हैं, जिनमें नारकी जीव रहते हैं। मध्यलोक में मनुष्य और तिर्यंच रहते हैं। इस प्रकार तीन काल, तीन लोक चारगतिरूप संसार परिभ्रमण अनादि अनंत है। इसमें अज्ञानी संसारी जीव अनादि से संसार में पाप-पुण्य को भोगता हुआ भ्रमण कर रहा है।
कभी यह जीव शुद्ध था, फिर अशुद्ध हुआ ऐसा नहीं है। कार्माण और तैजस शरीरों का संयोग अनादि से है, यद्यपि उनमें नये स्कंध मिलते हैं, पुराने स्कंध छूटते हैं इसलिये संसारी जीवों का भ्रमण रूप संसार भी अनादि है तथा यदि इसी तरह जीव कर्म बंध करता हुआ भ्रमण करता रहा तो यह संसार इस मोही अज्ञानी जीव के लिये अनंतकाल तक रहेगा। जीव अपने सच्चे स्वरूप को भूला है और अज्ञान मिथ्यात्व के कारण संसारी बना है, जिससे यह जीव जिस शरीर को पाता है उसमें ही एकत्व मान लेता है। शरीर के जन्म को अपना जन्म,
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