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________________ गाथा-२६,२७ *---*-*-*-*- *-* -1E-B1-16 -16- 5 * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी +बंध नहीं होता। जो संसार के जन्म-मरण कर्म बंधन से छुड़ाकर मुक्ति, परमात्म * पद प्राप्त करावे उसका नाम धर्म है। धर्म का शब्दार्थ धारण करे सो धर्म है । वत्थु सहावो धम्मो, वस्तु का * स्वभाव ही धर्म है। जैसे- अग्नि की ऊष्णता, पानी की शीतलता, नमक का खारापन यह इनका स्वभाव है, यही इनका धर्म है जो कभी विलग नहीं होता, इसी प्रकार जीव का स्वभाव चेतना है यही जीव का धर्म है, जो अनादि निधन शाश्वत है। चेतना तीन लोक में शुद्ध प्रदेशी ही है। अनादि से जीव और पुद्गल का एक क्षेत्रावगाह सम्बंध है तथापि आज तक कभी जीव का एक प्रदेश पुद्गल रूप अचेतन अशुद्ध नहीं हुआ और पुद्गल का परमाणु एक प्रदेश भी चेतन रूप नहीं हुआ। सब अपने-अपने में भिन्न शुद्ध प्रदेशी ही हैं। ऐसे अपने शुद्ध प्रदेशी चैतन्य स्वरूप शुद्ध स्वभाव का जो सत्श्रद्धान करता है उसी को सम्यकदर्शन रूपी धर्म प्रगट होता है और ऐसे अपने शुद्ध स्वभाव की साधना करने से सभी कर्म मल क्षय हो जाते हैं। आत्मा का स्वभाव अनंत गुण पर्यायवान शुद्ध ज्ञान चेतनामय अविनाशी परमानंदमयी है। इस शुद्ध आत्म स्वरूपमयी धर्म का अनुभव करने से कर्मों का क्षय होता है । मोह, राग-द्वेष रहित जो आत्मा का स्वाभाविक परिणाम है, वही समभाव है, वही चारित्र है, वही धर्म है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषय, व्यसन यह सब पाप कर्म,पाप बंध और दुर्गति के कारण हैं। पाप कर्म में अशुभ भाव होते हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, दया, दान, परोपकार, व्रत, नियम, संयम, पूजा, भक्ति यह सब पुण्य कर्म पुण्यबंध और सद्गति के कारण हैं। पुण्य कर्म में शुभ भाव होते हैं। निज चैतन्य स्वरूप, शुद्ध स्वभाव, वीतराग भाव शुद्धोपयोग ही धर्म है। इससे पूर्व कर्म बंधोदय क्षय होते हैं। एक मात्र मुक्ति का कारण यह शुद्ध धर्म ही है। प्रश्न-व्यवहार धर्म दया दान परोपकार पूजा भक्ति आदि भी सदगति मुक्ति का कारण है, इसको भी महत्व क्यों नहीं देते? समाधान - अध्यात्म में निश्चय को ही प्रधानता दी जाती है, व्यवहार गौण रहता है तथा देव, गुरु और शास्त्र में निश्चय-व्यवहार लगता भी है परंतु धर्म में तो व्यवहार होता ही नहीं है। जैसे-निश्चय से सच्चा देव निज शुद्धात्मा है और व्यवहार में सच्चे देव अरिहंत सिद्ध परमात्मा हैं। निश्चय से सच्चा गुरू निज अंतरात्मा है, व्यवहार में सच्चे गुरू वीतरागी निर्ग्रन्थ आत्मज्ञानी साधु होते हैं। निश्चय से जिनवाणी (शास्त्र) निज सुबुद्धि का जागरण और व्यवहार में जिनेन्द्र कथित वीतरागता पोषक मोक्षमार्ग प्रदर्शक सच्चे शास्त्र होते हैं तथापि धर्म तो एक निश्चय शुद्ध रत्नत्रयमयी निज आत्म स्वभाव ही है, व्यवहार धर्म होता ही " नहीं है क्योंकि धर्म ही एक मात्र मुक्ति का कारण है। पुण्य रूप व्यवहार धर्म यह तो संसार का कारण, कर्म रूप अधर्म ही है। कर्म चाहे शुभ पुण्य रूप हों या अशुभ पापरूप हों दोनों ही बंध के कारण हैं इसलिये धर्म के सच्चे स्वरूप को समझकर उसे ही स्वीकार करना हितकारी है। संसार में धर्म के नाम पर क्या-क्या हो रहा है, यह प्रत्यक्ष सामने है। प्रश्न-धर्म की क्या विशेषता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - धम्मं च सुद्ध विपनं, धम्मं सहकारि चेयना सुद्धं । धम्म तिलोय संजुत्तं, लोयालोयं च धरइ सुद्धं च ॥२६ ।। धम्मं सहाव उत्तं, चेयन संजुत्त विपन ससरूवं । आनन्दं सहजानन्द, धम्म ससहाव मुक्ति गमनं च ॥ २७॥ अन्वयार्थ-(धम्मं च सुद्ध षिपन) शुद्ध धर्म ही कर्मों को क्षय करने वाला ल है (धम्मं सहकारि) धर्म की सहायता, साधना, सहयोग से (चेयना सुद्ध) चेतना शुद्ध होती है अर्थात् आत्मा-परमात्मा बनता है (धम्म) धर्म में (तिलोय संजुत्तं) तीन लोक संयुक्त रहता है अर्थात् तीन लोक के समस्त जीव, समस्त द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में लीन रहते हैं। धर्म से कोई विलग है ही नहीं (लोयालोयं) लोकालोक को (च धरइ) धारण करने वाला, जिसके आधार पर लोकालोक टिका है (सुद्धं च) वह शुद्ध धर्म ही है। (धम्म) धर्म का (सहाव उत्तं) उत्तम स्वभाव कहा गया है जो उत्तम क्षमादि दस धर्म रूप है (चेयन) चैतन्य (संजुत्त) लीन रहने (षिपन) क्षय हो जाते हैं (ससरूवं) स्वस्वरूप में (आनन्द) आनन्द मयी, ज्ञानानंद स्वभावी (सहजानन्द) सहजानन्दमयी (धम्म) धर्म का (ससहाव) स्वस्वभाव (मुक्ति गमनं च) मोक्षमार्ग का कारण, मुक्ति देने वाला है। विशेषार्थ - धर्म की विशेषता यह है कि शुद्ध धर्म ही कर्मों को क्षय करने -E-E HE-ME ३९
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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