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________________ * सार सूत्र** * *** E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी कही है, उसी तरह यह अज्ञानी प्राणी सहज सुख को अपने पास रखते हुए भी व कभी उसका बिल्कुल मलीन अनुभव, कभी कम मलीन अनुभव, कभी कुछ स्वच्छ स्वाद पाते हुए भी उस सहन सुख को भूला हुआ है और श्रम से इन्द्रियों के विषयों में ढूँढता फिरता है कि यहाँ सुख होगा। साधक को बाहरी चारियों में निमित मात्र से ही सन्तोष नहीं करना चाहिये। जब आत्मा आत्म समाधि में व आत्मानुभव में वर्तन करे तब ही कुछ फल हुआ, तब ही मोक्षमार्ग सधा ऐसा भाव रखना चाहिये क्योकि जब तक शद्धात्मा का ध्यान होकर शद्धोपयोग का अंश नहीं प्रगट होगा तब तक संवर व निर्जरा के तत्व नहीं प्रगट होंगे। +जो कोई पर पदार्थों में अहंकार ममकार का त्याग करके एकाम भाव से अपने आत्मा का अनुभव करता है वह पूर्व संचय किये हुए कर्म मलों का नाश करता है तथा नवीन कर्मों का संवर भी करता है। + पवित्र होने का उपाय पविष का ध्यान करना है। मैं कषाय रहित व संज्ञाओं से रहित शुद्धात्मा हूँव सर्व ही विश्व की आत्माएँ शुद्ध है, इस तरह भावना करने से स्वानुभव का लाभ होता है। स्वानुभव को ही धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान नित्य उदय रूप समयसार परमात्मा का अनुभव करता है। वास्तव में यह आत्मानुभव ही मोक्षमार्ग है और योगी को यही निरन्तर करना चाहिये। झान आत्मा से भिन्न अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखता, इसी प्रकार आत्मा भी ज्ञान से भिन्न होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखती। दोनों में गुण-गुणीपने का संबंध है। गुण-गुणी कभी पृथक् नहीं हो सकते, उनकी एक ही सत्ता है। आत्मा ही सम्यदर्शन ज्ञान चारिभ स्वरूप है, स्नाय स्वरूप आत्मा ही मोक्ष का मार्ग है। यह एक ही मोक्ष का मार्ग सुनिश्चित है, अन्य कोई मार्ग मोक्ष का नहीं है। इस शुद्ध चैतन्य स्वरूप में जो सम्यकदृष्टि जीव अपने को स्थापित करते हैं उसका ही अनुभव करते हैं, उसका बार-बार चिन्तवन-स्मरण करते रहते हैं तथा उसे छोड़कर अन्य पदार्थों का किंचित् भी स्पर्श नहीं करते अर्थात् उनकी ओर अपना उपयोग नहीं ले जाते, एकागता से अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा में ही अपना उपयोग रखते हैं, उसी में रमते हैं, अन्य पदार्थों के आधार पर होने वाले मोह रागादि विभावों में परिणमन नहीं करते, ऐसे ध्यानी एकागता में आसद संयमी सम्यकदृष्टि जीव ही शीघता से उसी भव में या तीसरे भव में आत्म विशुद्ध स्वरूप कैवल्य को या मुक्तिदशा को प्राप्त करते हैं। जो इस स्व संवेदन ज्ञान का आश्रय करते हैं, इसी में लीन होते हैं, वे मुक्ति के अविनाशी स्वाधीन शाश्वत सुख का बीज बो रहे हैं, शीघ ही उनका वह कल्पवृक्ष फलेगा। उन्हें कोवलज्ञान की प्राप्ति होगी तथा आठों कर्मों की उपाधि से रहित सिद्धावस्था को प्राप्त करेंगे। * मोक्ष पुरुषार्थ ही सम्पूर्ण पुरुषार्थों की चरम सीमा है। उसे प्राप्त करने पर जीव अनादि अपनी भूलों का परिमार्जन कर निर्दोष उस अवस्था को प्राप्त होता है, जिसके बाद कुछ करना शेष नहीं रह जाता, उस ज्ञान को प्राप्त हो जाता है जिससे बाहर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता, उस आनंद को प्राप्त होता है जिससे अधिक कोई आनन्द प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। ऐसा तृप्त होता है कि अतृप्ति शेष नहीं रह जाती। करणीय सभी कार्यों की समाप्ति हो जाने से कृतकृत्य हो जाता है। कोई गन्तव्य स्थान न रहने से लोक के शिखर में विराजमान स्थिर हो जाता है यही स्व की परिपूर्ण प्राप्ति है, जो समस्त पर द्रव्यों से उनके गुणों और पर्यायों से भिन्न अपने अनन्त गुण-पर्यायों में विस्तार रूप है। यह ऐसी अवस्था है जिसमें अब कभी परिवर्तन नहीं होता है। यही अनन्त अविनाशी सुख की प्राप्ति है। जीव की जो अनादि की अभिलाषा थी कि मुझे वह सुख प्राप्त हो वह अभिलाषा पूर्ण हो जाने से जीव निरभिलाषी हो गया। * गम्भीर व निर्मल मन के सरोवर के भीतर जब तक चारों तरफ से कषायरूपी मगर मच्छों का वास है, तब तक गुणों के समूह शंका रहित होकर वहां नहीं ठहर सकते, इसलिये तू समता भाव, इन्द्रिय दमन व विनय के द्वारा उन कषायों के जीतने का यत्न कर। शुद्धात्मा का जहाँ श्रद्धान है, ज्ञान है व उसी का ध्यान है अर्थात् जहाँ शुद्धात्मा का अनुभव है, उपयोग पंचेन्द्रिय व मन के विषयों से हटकर एक निर्मल आत्मा ही की तरफ तन्मय है, वहीं यथार्थ मोक्षमार्ग है। *अन्तरात्मा अपने आत्मा को अकर्ता व अभोक्ता देखता है। वह जानता है कि आत्मा ज्ञान चेतनामय है अर्थात् यह मात्र शुद्ध ज्ञान का स्वाद लेने वाला है। इसमें राग-देष रूप कार्य करने के अनुभव रूप कर्म चेतना तथा सुख-दुःख भोगने रूप कर्म फल चेतना नहीं है। *दर्शन ज्ञान चारित्रमय आत्मा ही निश्चय से एक मोक्ष का मार्ग है। जो कोई इस अपने आत्मा में अपनी स्थिति करता है, रात-दिन उसी को ध्याता है, उसी का अनुभव करता है, उसी में ही निरन्तर विहार करता है, अपने आत्मा के सिवाय अन्य आत्माओं को, सर्व पुदगलों को, धर्म, अधर्म, आकाश और काल चार अमूर्तीक दव्यों को व सर्व ही पर भावों को स्पर्श तक नहीं करता, वह ही अवश्य * जय तारण वरण 10 * इति * 318
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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