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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
न तो अपनी परिणति को जानता है, न अपने परिणाम के फल को जानता है, और न जीव और उसकी परिणति को जानता है क्योंकि वह अचेतन जड द्रव्य है। इस प्रकार परस्पर विरुद्ध लक्षण धारण करने वाले जीव- अजीव दोनों द्रव्यों में, उसके गुणों में तथा दोनों की पर्यायों में परस्पर में अत्यन्त भेद है इसलिये उनमें एक दूसरे की पर्यायों से तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता ।
+ जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य का भी परस्पर अनादि सम्बन्ध है तथापि उनका संयोग सम्बन्ध है, तादात्म्य नहीं है। उनमें एक दूसरे के निमित से परिणमन भी देखे जाते हैं, उन परिणमत्रों में निमित-नैमितिक सम्बन्ध अवश्य है, परन्तु उपादान- उपादेय भाव, कर्ता-कर्मभाव नहीं है।
+ जो स्वाधीन हो वह स्वभाव कहलाता है, परंतु जो पर के आधीन हो वह स्वभाव नहीं होता, वह विभाव होता है। सो विभाव रूप परिणमन भी भले ही पर के निमित से हो परन्तु वस्तु की परिणमनशीलता रूप स्वभाव के अभाव में वह पर के रहने पर भी नहीं होता; अतः यह सिद्ध है कि जीव अपने स्वभाव-विभाव परिणमन में स्वयं जिम्मेवार है, पर का कोई दोष नहीं है ।
+ ज्ञानी जीव वस्तु की स्थिति को समझता है अत: वह पर को पर वस्तु जान मोह नहीं करता अतः बन्ध नहीं करता। वह वस्तु के स्वभाव का मात्र ज्ञाता होता है। पर वस्तु के साथ उसका मात्र ज्ञेय-ज्ञायक भाव संबंध है; अत: वह संसार के सम्पूर्ण परिवर्तन को तटस्थ व्यक्ति की तरह मात्र देखता है, उसमें लीन नहीं होता। इस प्रकार का भेदविज्ञानी पर से विरक्त होकर पर के कर्तृत्व भाव को छोड़ देता है।
+ आत्मा उपयोग लक्षण वाला है, अतः स्वयं ज्ञानरूप है, ज्ञानमयी है, सदा काल चैतन्योपयोग रूप रहता है। शुद्ध दशा में ज्ञानोपयोग रूप है और अशुद्ध रामादि युक्त दशा में भी अशुद्ध ज्ञानोपयोग रूप है। ज्ञानरूपता का परित्याग कभी हो सकता नहीं है।
+ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि आत्मा के स्वरूप को यथार्थ न जानने से अनात्मज्ञ है। अपने स्वरूप को पर के साथ अर्थात् शरीर के साथ एकाकार कर ज्ञान करता है। दोनों की विभिन्नता उसे अनुभव में नहीं आती, इस अज्ञान की भूमिका को वह नहीं त्यागता । शास्त्र पठन करते हुए व्रतादि पालते हुए, दान पूजादि शुभ कार्य का आचरण करते हुए भी शरीर आत्मा भिन्न-भिन्न है, ऐसा शास्त्र के आधार पर जानते तथा वर्णन करते हुए भी, वह अपने को शरीर से भिन्न कर्मोदय जनित विकारों से भिन्न अनुभव नहीं करता, किन्तु उनके एकाकार रूप को अनुभव करता है। उसका ज्ञान भले ही आगमाश्रित हो, व्रताचरणादि आगमानुकूल हों, पर श्रद्धारूप परिणति पर भावों के एकाकार रूप होने से परिणतियां अज्ञानमय ही हैं;
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सार सूत्र ***
अत: यह पद पद पर अज्ञानमय भाव का ही कर्ता होता है, ज्ञानमय भाव का कभी नहीं होता ।
सम्यकदृष्टि ज्ञानी आत्मा कर्मों के मध्य पडा हुआ भी सर्व पर द्रव्यों से राग भाव का त्याग करता हुआ इसी तरह कर्म रूपी ज से लिप्त नहीं होता है, जिस तरह कीचड़ में पड़ा हुआ सोना जंग को प्राप्त नहीं होता है; परन्तु अज्ञानी जीव कर्मों के मध्य पड़ा हुआ सर्व पर द्रव्यों में राम भाव करता हुआ कर्म रूपी रूज से लिप्त हो जाता है। सम्यकदृष्टि ऐसा भीतर से वैरागी होता है कि कर्मों का फल भोगते हुए भी कर्मों की निर्जरा कर देता है तथा बंध या तो होता नहीं, यदि कषाय के अनुसार कुछ होता भी है तो वह संसार में भ्रमण कराने वाला नहीं होता है। शुद्ध निश्चयनय के द्वारा जो शुद्ध आत्मा का अनुभव है वह निश्चय सम्यक्ज्ञान है ऐसा जान करके जब कोई अपने आत्मा को अपने आत्मा में निश्चल रूप से • धारण करता है तब वहाँ सर्व तरफ से नित्य ही एक ज्ञानघन आत्मा ही स्वाद में आता है।
अज्ञानी सदा ही कर्म की प्रकृतियों के स्वभावों में अर्थात् जैसा कर्म का उदय होता है उसमें लीन होकर सुख-दुःख का भोक्ता हो जाता है। ज्ञानी प्रकृति के स्वभाव से अर्थात् कर्मों के उदय से विरक्त रहता है, इसलिये कभी भी भोक्ता नहीं होता है, वह ज्ञाता रहता है। ऐसा नियम समझकर अज्ञानपना त्याग देना चाहिये और शुद्ध एक आत्मा की निश्चल ज्योति में थिर होकर ज्ञानभाव का ही सेवन करना चाहिये।
+ इस जगत में जब तक परमात्मा का ज्ञान मानव के हृदय में नहीं विराजता है, तब तक ही बुद्धि रूपी नदी, शास्त्र रूपी समुद्र की तरफ आगे-आगे दौड़ती रहती है। आत्मा का अनुभव होते ही बुद्धि स्थिर हो जाती है।
सत्पुरुषों की सत्संगति रूपी अमृत के झरने से पुरुषों का हृदय पवित्र हो जाता है तब उसमें विवेक से प्रसन्न हुई ज्ञानमयी लक्ष्मी निवास करती है।
+ जैसे लवण की कणिका जिव्हा द्वारा उपयोग में लवणपने का स्वाद, बोध कराती है। मिश्री की कणिका उपयोग में मिष्ठपने का ज्ञान कराती है, वैसे ही आत्मा के स्वभाव का एक समय मात्र भी अनुभव सहज सुख का ज्ञान कराता है।
+ जैसे- कस्तूरी मृग की नाभि में होती है, वह उसकी सुगन्ध का अनुभव करता है परन्तु उस कस्तूरी को अपनी नाभि में न देखकर बाहर-बाहर ढूँढता है, जैसे- हाथ में मुद्रिका होते हुए भी कोई भूल जावे कि मुद्रिका मेरे पास नहीं है और उस मुद्रिका को बाहर-बाहर ढूँढने लगे। जैसे- मदिरा से उन्मत अपने घर में बैठे हुए भी कोई व्यक्ति अपने घर को भूल जावे और बाहर ढूँढता फिरे व पूछता फिरे कि मेरा घर
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