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________________ सार सुत्र** * * e + * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी सुख-दुःख में समभाव रखता है, उसी श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा जाता है। ऐसे शुद्धोपयोगी के ही श्रामण्य कहा गया है, उसी के दर्शन और ज्ञान कहा गया है, उसी का निर्वाण होता है, वही सिद्ध पद प्राप्त करता है, उसे मैं नमन करता हूँ। k * निश्चय चारिश तो साध्य रूप है तथा सराग व्यवहार चारित्र उसका साधन है। साधन तथा साध्य स्वरूप दोनों चारित्र को क्रम पूर्वक धारण करने पर जीव प्रबोध को प्राप्त होता है। आभ्यन्तर शुद्धि होने पर बाह्य शुद्धि भी नियमत: ही है। आभ्यन्तर दोष से ही मनुष्य बाहा दोष करता है। मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भाव शुद्धि है,ऐसा लोकालोक के ज्ञाता दृष्टा सर्वज्ञदेव का भव्यजीवों के लिये उपदेश है। श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, क्षमा को बुर्ज, खाई और शतनी स्वरूप पिगुप्ति (मन, वचन, काय) से सुरक्षित तथा अजेय सुद्द प्राकार बनाकर तपरूपी वाणी से युक्त धनुष से कर्म कवच को भेदकर आंतरिक संगाम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है। जिनदेव के मतानुसार आहार, आसन तथा निद्रा पर विजय प्राप्त करके गुरु प्रसाद से ज्ञान प्राप्त कर निजात्मा का ध्यान करना चाहिये । सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार से तथा राग-द्वेष के पूर्ण क्षय से जीव एकान्त सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता है। * जिन्हें आत्मा और अनात्मा का ज्ञान नहीं है उन्हें भेदविज्ञान नहीं है, जिन्हें भेदविज्ञान नहीं है उनकी समस्त क्रियाएँ केवल शरीर शोषण की है वह मिथ्याचारित्र है; अत: मिथ्याचारित्र से अपने को मोक्षमार्गी मानने का अहंकार त्याग कर आत्महित के मार्ग में लगना चाहिये। *जैसे केवल अध्यात्म चर्चा करने मात्र से अपने को सायष्टि मानने वाले अहंकारी मोक्षमार्ग से दूर हैं, इसी प्रकार भेदज्ञान रहित महावतादि के अहंकारी भी मोक्षमार्ग से दूर हैं। सम्यक्त्व सहित चारित्र ही मोक्षमार्ग में कार्यकारी है। * मोक्षमार्ग में स्थितवे हैं जो सम्यक्ष्टि भेदविज्ञानी हैं जिन्हें सम्यचारिश के पालन करने की चटपटी है। जो अचारिश दशा में अपनी हीनता स्वीकार करते हैं। चारित्र की महिमा को जानते व मानते हैं, ऐसे अविरत सम्यकदृष्टि भी मोक्षमार्गी हैं तथा भेदविज्ञान की महिमा को धारण कर जो व्रत संयम पालते हैं ऐसे श्रावक या महावती साधु उनसे भी आगे मोक्षमार्ग में बढ़े हुए हैं। सम्यकदृष्टि जीव वत चारिश को तिरस्कार दृष्टि से नहीं देखते, आदर करते हैं। इसी प्रकार महावती अध्यात्म का निरादर नहीं करते, किन्तु अध्यात्म को जीवन में उतारते हैं तथा आत्म रमण रूप निश्चय चारिश को स्वीकार करते हैं जो साक्षात् ************ मोक्ष का हेतु है। जो लोग इस जिनागम के रहस्य के ज्ञाता नहीं हैं वे केवल परमात्मा के भजन, बाह्य व्रताचरण में मगन हैं और इन शुभ कार्यों से मुक्ति मानते हैं। इन शुभ कार्यों का निषेध नहीं है परंतु यह मानकर चलो कि यह पुण्यबन्ध के कार्य है किन्तु मोक्ष का पथ पुण्य-पाप से भिन्न ज्ञानाश्रय से ही है, वही साध्य है। जिनके हृदया कमल में ज्ञानकला प्रगट हुई है उनकी दृष्टि बाहा से सिमटकर अन्तरंग को प्रकाशित करती है, वे जगत से भिन्न आत्मा का दर्शन करते हैं। इसके समस्त गुणों को परखते हैं वे ही परमार्थी अपने परम अर्थ के साधक हैं। आत्म स्वरूप का अनुभव ही सम्पूर्ण अर्थों को सिद्ध करने वाले चिन्तामणि स्न के समान अपूर्व शक्ति का भंडार है। इसी के आश्रय से जीव संसार के सम्पूर्ण बन्धनों को तोड़कर मोक्ष के पथ का पथिक बनता है तथा चतुति रूप संसार के दुःखों से टूट जाता है। पूर्वकृत कर्म का विनाश, नवीन कर्म का निरोध, यह दोनों मुक्ति के उपाय है जो आत्मानुभवी को सहज प्राप्त है।। + हे आत्मन् ! तू पर की ओर दुष्टि करके दीन हुआ ललचाता फिरता है। तूने कभी अपनी निज निधि का दर्शन नहीं किया। तेरे भीतर ज्ञान कला ऐसी अपूर्व निधि है, जो तेरे सम्पूर्ण प्रयोजनों को साधने वाली है। वही तेरे लिये चिंतामणि स्तन के समान शक्ति वाली वस्तु है। जिसकी शक्ति विचार में नहीं आती, परंतु स्वयं अनन्त शक्ति उसमें है, उसका आश्रय कर, तेरे सर्व मनोरथ पूर्ण होंगे। वस्तुत: पर पदार्थ अपनी-अपनी सवा में अक्षुण्ण हैं, उनका जीव भोग नहीं करता, न कर सकता है। "मैंने पदार्थ भोगा" यह तो उपचरित कथन है। पदार्थ का ज्ञान ही पदार्थ का वेदन है और उसके प्रति राग ही उस पदार्थ का भोगना कहा जाता है। ज्ञानी जानता है कि संसार का प्रत्येक पदार्थ क्षणभंगुर है, परिवर्तनशील है तथा मेरा ज्ञान भाव भी परिवर्तनशील है। सभी पदार्थ क्षण-क्षण में पर्याय बदलते हैं। ऐसी अवस्था में मैं जिसकी आकांक्षा करता हूँ वह क्षणभर में विनष्ट हो जाता है, वह तो प्राप्त नहीं हो सकता । यदि अनागत पर्याय की आकांक्षा करतो तब तक मेरा भाव परिवर्तित हो जाता है। अत: दोनों के समय-समय परिवर्तन रूप होने से आकांक्षा और आकांक्षित दोनों का एक काल में अस्तित्व नहीं बनता, अत: वेद्य वेदक भाव के, जो विभावरूप हैं, चंचल होने से जब दोनों का योग सम्भव ही नहीं है, तब कांक्षा करना वृथा है, मात्र कर्म बंध का हेतु है अत: ज्ञानी इन सबसे विरक्तता ही को प्राप्त होता है। ज्ञानी पुरुष यह जानता है कि जीवद्रव्य और पुदगल द्रव्यदोनों द्रव्यों में यही सबसे बड़ा अन्तर है कि जीव अपनी परिणति को जानता है, पुदगल की परिणति को जानता है, पगलकर्म के उदय जन्य अवस्था को जानता है। किन्तु पुदगल द्रव्य ** ******** HEE 16--16: E-E-
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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