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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
कहने का भाव हुआ ।
(जिन उत्तं जिन वयनं ) जिनेन्द्र कथित जिनवाणी के अनुसार (जिन सहकारेन उवएसनं तंपि ) अंतरात्मा के लक्ष्य से उसी का उपदेश कहा गया है (तं जिन तारन रइयं) वैसा ही इस उपदेश शुद्धसार ग्रन्थ को जिन तारण ने रचा है (कम्मषय मुक्ति कारनं सुद्धं) जिससे कर्म क्षय हों और शुद्ध मुक्ति का कारण बने अर्थात् आत्मा शुद्ध भाव को प्राप्त करे जिससे कर्म क्षय होकर मोक्ष की प्राप्ति हो ।
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विशेषार्थ : उपदेश शुद्ध सार ग्रन्थ की रचना का मूल प्रयोजन तो अपने परमार्थ के ज्ञान को शुद्ध करना है। जैसा जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर स्वामी ने कहा और मैंने देखा, अनुभव किया, वैसा ही सत्य वस्तु स्वरूप का उपदेश संक्षेप में कहने का भाव हुआ, जिससे सभी भव्यजीव धर्म का सही स्वरूप समझ सकें।
जिनेन्द्र कथित जिनवाणी के अनुसार अंतरात्मा के लक्ष्य से जिन स्वरूप का उपदेश कहा गया है। इसमें कोई ख्याति, लाभ, पूजा का अभिप्राय नहीं है, ज्ञानोपयोग द्वारा आत्मा शुद्ध भाव को प्राप्त हो, जिससे कर्म क्षय होकर मोक्ष की प्राप्ति हो । समस्त भव्यजीव सत्य वस्तु स्वरूप समझकर अपना आत्म कल्याण करें, मोक्ष को प्राप्त करें इसी उद्देश्य से जिन तारण द्वारा यह उपदेश शुद्ध सार ग्रन्थ रचा गया है।
प्रश्न- जिनवाणी द्वादशांग रूप में विशाल भंडार है फिर अलग से यह और लिखने का क्या प्रयोजन है ?
समाधान- जिनवाणी, द्वादशांग रूप विशाल है, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश भाषा में अनेक ग्रंथ हैं किंतु सामान्य जन न उनको पढ़ सकते हैं, न समझ सकते हैं तथा प्रचलित भाषा में भट्टारकों ने धर्म के नाम पर बाह्य क्रियाकांड, गृहीत मिथ्यात्व, कुदेव, अदेव आदि के पूजा विधान द्वारा पवित्र जैनधर्म, भगवान महावीर की शुद्ध आम्नाय शुद्ध अध्यात्म का लोप कर दिया है, जिससे जीव अपने सत्स्वरूप को न समझकर बाह्य क्रियाकांड, पूजा, आडंबर में ही उलझकर रह गये हैं। मैंने जैसा भगवान महावीर की दिव्य देशना को सुना, जाना, अनुभव किया और देखा है, वैसा ही शुद्ध वस्तु स्वरूप कहने का प्रयास किया है, जिससे सभी भव्य जीव अपना आत्म कल्याण कर सकें, धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझकर सद्गति मुक्ति प्राप्त
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गाथा ५८८, ५८९ **** करें । मूल में अपना प्रयोजन अपने ज्ञान की शुद्धि करना है।
विशेष सद्गुरू तारण स्वामी वीतरागी संत थे, जिन्होंने जंगल में रहकर आत्म स्वभाव का अमृत निर्झर प्रवाहित किया है। सद्गुरू तो धर्म के स्तंभ हैं, जिन्होंने सत्य धर्म को कहने में जगत की परवाह नहीं की, जहर दिया गया, बेतवा में डुबाये गये परंतु सब परीषहों को जीतकर शुद्ध अध्यात्म को अक्षुण्ण रूप से जीवन्त रखा है।
साधक दशा में स्वरूप की अनुभूति करने, उसमें लीन रहने में क्या-क्या बाधायें आती हैं ? जनरंजन राग, कलरंजन दोष, मनरंजन गारव, दर्शन मोहांध, पूर्व कर्म बंधोदय आदि को कैसे दूर किया जाये ? यह सब आगम प्रमाण और अनुभव प्रमाण बतलाया है।
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उपदेश शुद्ध सार ग्रंथ साधक के लिये संजीवनी है, ऐसे महान शास्त्र की रचना कर उन्होंने बहुत जीवों पर असीम उपकार किया है। स्वयं तो तरे ही, जगत के भव्यजीवों को तरने का मार्ग प्रशस्त किया है इसलिये तारण तरण कहलाये | आपने पग-पग पर आत्मा का शंखनाद किया है। कितने गंभीर रहस्यों को सरल सुबोध भाषा में खोलकर स्पष्ट कर दिया है, आपके कथन में केवलज्ञान की झंकार गूंजती है। जो भव्यजीव निष्पक्ष भाव से आत्म कल्याण की भावना से इस ग्रन्थ का स्वाध्याय, मनन करेंगे उनका मुक्ति मार्ग प्रशस्त होगा ।
जिज्ञासु जीव को सत्य का स्वीकार होने के लिये अंतर विचार में सत्य समझने का अवकाश अवश्य रखना चाहिये ।
इति श्री उपदेश शुद्ध सार ग्रन्थ जिन तारण तरण विरचित साधक संजीवनी टीका समुत्पन्नता.
निश्चय चारित्र तो साध्य रूप है तथा सराग व्यवहार चारित्र उसका साधन है । साधन तथा साध्य स्वरूप दोनों चारित्र को क्रम पूर्वक धारण करने पर जीव प्रबोध को प्राप्त होता है ।
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जय तारण तरण **