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________________ सार सुत्र** * E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी ** उपदेश शुद्ध सार : सूत्र ** 34+ स्नभय में सम्यक्रदर्शन ही श्रेष्ठ है और इसी को मोक्षरूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है। यह निश्चय और व्यवहार के रूप में दो प्रकार का है। व्यवहारमय से जीवादितत्वों के श्रद्धान को जिनदेव ने सम्यक्त्व कहा है। निश्चय से तो आत्मा ही सम्यकदर्शन है। *जो सम्यकदर्शन से शष्ट है वही शष्ट है। दर्शन भष्ट को कशी निर्वाण प्राप्ति नहीं होती। चारित्र विहीन सम्यकदृष्टि तो (चारिश धारण करके) सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु सम्यदर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते। * एक ओर सम्यक्त्व का लाभ और दूसरी ओर प्रैलोक्य का लाभ होता हो तो पैलोक्य के लाभ से सम्यकदर्शन का लाभ श्रेष्ठ है। अधिक क्या कहें अतीतकाल में जो श्रेष्ठजन सिद्ध हुए हैं और जो आगे सिद्ध होंगे, वह सम्यक्त्व काही माहात्म्य है। जैसे कमलिनी का पा स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होता। सायष्टि मनुष्य अपनी इन्द्रियों के द्वारा चेतन तथा अचेतन द्रव्यों का जो भी उपभोग करता है, वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है। ** सम्यक्त्व रूपी रन से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधना विहीन होने से संसार में अर्थात् नरकादिक गतियों में भ्रमण करते रहते है। जिससे तत्व का ज्ञान होता है, चित्त का विरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिन शासन में ज्ञान कहा गया है। जिससे जीव राग विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है और जिससे मैत्रीभाव बढ़ता है, उसी को जिन शासन में ज्ञान कहा गया है। जैसे धागा पिरोई हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही ससूम अर्थात् शास ज्ञान युक्त जीव संसार में पड़कर भी नष्ट नहीं होता। * जैसे कोई व्यक्ति निधि प्राप्त होने पर उसका उपभोग स्वजनों के बीच करता है, वैसे ही ज्ञानी प्राप्त ज्ञान निधि का उपभोग पर द्रव्यों से विलग होकर अपने में ही करता है। * जिस प्रकार चन्दन वृक्ष पर लिपटा हुआ सर्प अपने बैरी गरुड पक्षी को देखते ही तत्काल आखों से ओझल हो जाता है, पता लगाने पर भी उसका पता नहीं लगता। उसी प्रकार भेदविज्ञान के उत्पन्न होते ही समस्त कर्म आत्मा को छोडकर ************ न मालूम कहीं लापता हो जाते हैं, भेदविज्ञान के उत्पन्न होते ही कर्मों की सूरत भी नहीं दीख पड़ती। जो महानुभाव समस्त शारों में विशारद है और शुद्ध चिदूप की प्राप्ति का अभिलाषी है उसे चाहियो कि वह एकान हो भेदविज्ञान की ही भावना करे, भेदविज्ञान से अतिरिक्त किसी पदार्थ में ध्यान न लगाये। प्रथम तो चिट्ठपके ध्यान में रुचि नहीं होती, यदि रुचि हो जाये तो चिप के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र नहीं मिलता, कदाचित् शास्त्र प्राप्त हो जाये तो उसका उपदेशक गुरु नहीं प्राप्त होता, गुरु की प्राप्ति हो जाये तो भेदविज्ञान की प्राप्ति जल्दी नहीं होती, इसलिये भेदविज्ञान की प्राप्ति सबसे दुर्लभ है। आत्मा रूपी भूमि में कर्मरूपी अभेद्य पर्वत तभी तक निश्चल रूप से स्थिर रह सकते हैं जब तक भेदविज्ञान रूपी वज इनके मस्तक पर पड़कर इन्हें पूर्ण-चूर्ण नहीं कर डालता। यह चेतन और जड पदार्थ पराये और अपने हैं इस प्रकार का मन में चितवन करना ही मोह है क्योकि यदि वास्तव में देखा जाये तो कोई पदार्थ किसी का नहीं है। + आत्मा और देह के भेदविज्ञान से उत्पन्न हुए आल्हाद से जो आनंदित है वह तप द्वारा भयानक दुष्कर्मों को भोगते हुए भी खेद को प्राप्त नहीं होता । सम्यकदृष्टि को कभी भी इन व्याधि के स्थानभूत इन्द्रिय विषय में अत्यंत अनादर भाव असिद्ध नहीं; कारण कि वह इन्द्रिय विषय स्वयं ही बाधा का हेतु (निमित) है और इससे भोग में और रोग में कोई अंतर नहीं है। दर्शन मोह रहित सम्यष्टि गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित है, परन्तु दर्शन मोह सहित मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। इससे मिथ्यात्वी मुनि की अपेक्षा मिथ्यात्व रहित सम्यष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है। *मरण जैसा दःख प्राप्त होने पर भी जो जीव सम्यक्त्व को नहीं छोड़ते हैं, उनके सामने इन्द्र भी अपनी ऋद्धियों के विस्तार की निंदा करता हुआ उन्हें प्रणाम करता है। यदितीव तप को किया जाये तो वह तप सम्यदर्शन सहित शुद्ध कहलायेगा परन्तु यदि मिथ्यात्व सहित है तो वह तप अशुद्ध कहा जायेगा, क्योंकि वह आत्मा की ओर दृष्टिन रचता हुआ पर पुदगल की ओर दृष्टि लगाये रहता है इससे मदहो जाता है। पर पुद्गलीय पर्याय में स्त होने से दुःख का बीज ही बोता है। * सम्यकदृष्टिको नियमसे ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है क्योकि वह सम्यदृष्टि जीव स्वरूप का गहण और पर का त्याग करने की विधि के द्वारा वस्तु स्वरूप ३१४
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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