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****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
मोक्षमार्ग वर्तमान में भी साधक को आनंद परमानंद का दाता है और भविष्य में अनंत सुखमयी निर्वाण को ले जाता है।
जिनेन्द्र कथित जिनवाणी में इस शुद्ध तत्त्व शुद्ध अध्यात्म का रहस्य भरा है, जो जिनवाणी का स्वाध्याय, श्रवण, मनन कर सही ज्ञान प्राप्त करते हैं, सम्यक्ज्ञानी होते हैं, वह आनंद परमानंद में रहते हुए परमात्मा बनते हैं और निर्वाण चले जाते हैं।
सर्वज्ञ देव ने एक समय में तीन काल व तीन लोक के समस्त द्रव्य व उनकी त्रिकालवर्ती पर्याय को जाना है, निश्चय से वैसा ही मेरा भी जानने का स्वभाव है। जो होनी है वह बदल नहीं सकती परंतु जो होना है उसका मैं तो मात्र जानने वाला हूं। मैं पर की पर्याय को तो बदलने वाला नहीं परंतु अपनी पर्याय को भी बदलने वाला नहीं। धर्मी का निज स्वभाव सन्मुख रहते हुए ऐसा निश्चय होता है कि जो नहीं होना है, वैसा कभी होने वाला नहीं है, मैं कहीं भी फेर बदल करने वाला नहीं हूं। ऐसा निर्णय स्वीकार करने वाला ही सर्वज्ञ की सर्वज्ञता, जिनेन्द्र देव का अनुयायी और जिनवाणी का उपासक है। प्रश्न वर्तमान में जिनेन्द्र परमात्मा तो हैं नहीं फिर किसका उपदेश ग्रहण करें ?
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समाधान वर्तमान में जिनेन्द्र परमात्मा नहीं हैं परंतु उनकी दिव्यदेशना रूप जिनवाणी है। जिनवाणी का स्वाध्याय मनन करना ही जिनेन्द्र के उपदेश का ग्रहण करना है तथा निर्ग्रन्थ वीतरागी सम्यक् दृष्टि ज्ञानी भावलिंगी साधु भी जिनेन्द्र कथित शुद्ध तत्त्व का ही निरूपण करते हैं, ऐसे सद्गुरुओं की वाणी से अपने आत्म स्वरूप को जानकर मोक्षमार्ग पर चलना ही उपदेश का सार है।
मोक्षमार्ग पर चलने के लिये किन शास्त्रों का स्वाध्याय
प्रश्न करें ?
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समाधान - मोक्षमार्ग तो वीतराग भाव है अतः जिन शास्त्रों में किसी भी प्रकार से राग-द्वेष, मोह भावों का निषेध कर वीतराग भाव की प्राप्ति का प्रयोजन प्रगट किया हो, वे शास्त्र ही पढ़ने व सुनने योग्य हैं।
जिन शास्त्रों में श्रृंगार, भोग, कौतूहल आदि द्वारा संसार के राग भाव की पुष्टि हो तथा हिंसा आदि पाप के अनुमोदन द्वारा द्वेष भाव की पुष्टि हो अथवा अतत्त्व श्रद्धान, गृहीत मिथ्यात्व, कुदेव - अदेव आदि की पूजा, मान्यता
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गाथा ५८८, ५८९ ****** पोषण द्वारा मोह भाव की पुष्टि हो, वे शास्त्र नहीं हैं, शस्त्र हैं। जो जीव को पराधीन बनायें, कर्तापने का भाव जगायें, ऐसे शास्त्रों को नहीं पढ़ना, सुनना चाहिये ।
जिनसे वीतरागता बढ़े और कषाय घटे, अपने आत्म स्वरूप का श्रद्धान, बहुमान जागे, ऐसे शुद्ध अध्यात्म के निरूपण करने वाले शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये ।
प्रश्न- जिनवाणी का स्वाध्याय करने से भला होता है या भगवान पूजा भक्ति करने से भला होता है ?
की
समाधान
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न जिनवाणी का स्वाध्याय करने से भला होता है, न भगवान की पूजा भक्ति करने से भला होता है, अपने परमात्म स्वरूप भगवान आत्मा का श्रद्धान, ज्ञान करने से भला होता है, इसमें जिनवाणी का स्वाध्याय सहकारी शुद्ध कारण है, जो अपने स्वरूप का बोध कराता है। पर निमित्त की अपेक्षा भगवान की पूजा भक्ति में पराधीनपना है, इससे दृष्टि पर की तरफ ही रहती है। सच्चे देव गुरु शास्त्र का आश्रय भी राग भाव, संसार का कारण है। निज शुद्धात्म तत्त्व, कारण परमात्मा, परम पारिणामिक भाव का आश्रय ही मुक्ति का कारण है, इसी से अपना भला होता है।
अंतिम प्रशस्ति
आपने उपदेश शुद्ध सार की रचना, किस प्रयोजन से
प्रश्न की है ?
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इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंभव्यजन बोहनत्थं, अत्थ परमत्थ सुद्ध बोधं च । जिन उत्तं स दिडं, किंचित् उवएस कहिय भावेन ।। ५८८ ।। जिन उत्तं जिन वयनं जिन सहकारेव उवएसनं तंपि ।
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तं जिन तारन रइयं कम्म षय मुक्ति कारनं सुद्धं ।। ५८९ ।। अन्वयार्थ - (भव्यजन बोहनत्थं) भव्य जीवों के बोधनार्थ अर्थात् भव्य जीव धर्म का सही स्वरूप समझें (अत्थ परमत्थ सुद्ध बोधं च) मूल में प्रयोजन अपने परमार्थ के ज्ञान को शुद्ध करने के लिये (जिन उत्तं स दिट्ठ) जैसा जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर स्वामी ने कहा और मैंने देखा, अनुभव किया (किंचित् उवएस कहिय भावेन) वैसा वस्तु स्वरूप का उपदेश संक्षेप में
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