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-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
है । शुद्ध तत्त्व का हमेशा श्रवण मनन करने से निज शुद्धात्मानुभूति होती है, ममल ज्ञान का प्रकाश होता है। आत्मज्ञान में स्थिर होने से कर्म मल स्वयं क्षय हो जाते हैं इसलिये शुद्धतत्त्व का उपदेश ही मोक्ष प्राप्त करने में सहकारी है।
संसारी जीव अज्ञानमय अपने आत्मा को कर्म सहित मलीन रागी, द्वेषी, नर, नारकी, संसारी ही जानते मानते हैं, इससे निरंतर कर्मों का बंध होता है और संसार परिभ्रमण चलता रहता है। जब शुद्ध निश्चय नय से निज शुद्धात्म स्वरूप का उपदेश श्रवण, मनन अवधारण होता है तभी संसार परिभ्रमण से छुटकारा होता है।
वीतरागी देव गुरु धर्म व निज शुद्धात्म तत्त्व की चर्चा, परिज्ञान करना ही इष्ट हितकारी है । पुरुषार्थ पूर्वक भेदज्ञान, तत्त्व निर्णय करने में उपयोग लगायें तो स्वयमेव ही मोह का अभाव होने पर सम्यक्त्वादि रूप मोक्ष का उपाय बनता है। इसके लिये चार बातें आवश्यक हैं
१. प्रमाद (१५ भेद) का त्याग । २. शुद्धात्म तत्त्व रूपी स्वलक्ष्य की दृढ रुचि । ३. संयम और अभ्यास । ४. सम्यक्ज्ञान रूपी चक्र को प्राप्त करना । इस प्रकार निज शुद्धात्मा का श्रद्धान, स्व संवेदन ज्ञान और शुद्धात्म लीनता रूप निश्चय रत्नत्रय ही कर्मक्षय और संसार से छुड़ाने में समर्थ है, साधन है।
हे साधक ! चतुर्गति चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण का दुःखदायी परिभ्रमण करते-करते यदि तुम्हें थकान लगी हो, विषयों के प्रति निःसारता का भाव जागा हो तथा मुक्ति की अभिलाषा उत्पन्न हुई हो तो तुम अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति हेतु इस अविनाशी, नित्य, निरामय पद निज शुद्धात्म स्वरूप का श्रवण मनन आराधन करो, इसी में निरन्तर अपना उपयोग लगाओ ।
जो भव्यजीव अपने ही आत्मा को परमात्मा के समान शुद्ध श्रद्धान ज्ञान में लेकर अनुभव करता है तब वीतरागता पैदा होती है इसी से कर्म क्षय होते हैं, बंध का अभाव होता है और यह आत्मा शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाता है।
प्रश्न
यह शुद्ध तत्त्व निज शुद्धात्म स्वरूप का उपदेश किसने कहा है और कहां है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
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गाथा ५८६, ५८७ ****
उवएस जिन उसे सम्मतं सुद्ध सहाव संजुतं ।
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कम्मं तिविहि विमुक्कं, उवइटुं परम जिनवरिंदेहि ॥ ५८६ ॥ उवएस जिन वयनं, जिन सहकारेन न्यान मई सुद्धं ।
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आनन्दं परमानन्दं, परमप्पा विमल निव्वुए जंति ॥ ५८७ ॥ अन्वयार्थ - ( उवएसं जिन उत्तं) यह उपदेश जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है (सम्मत्तं सुद्ध सहाव संजुत्तं) अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होना ही शुद्ध सम्यक्त्व है (कम्मं तिविहि विमुक्कं) इसी से तीनों प्रकार के कर्म-द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म छूट जाते हैं (उवइट्टं परम जिनवरिंदेहि) ऐसा परम जिनेन्द्र देव ने उपदिष्ट किया है।
( उवएसं जिन वयनं) यह उपदेश जिनवाणी में लिखा है (जिन सहकारेन न्यान मई सुद्धं) जो जिनेन्द्र द्वारा कथित ज्ञानमयी शुद्ध है (आनन्दं परमानन्दं ) ऐसे जिनवाणी के श्रवण मनन से आत्मा परमानंद मय हो जाता है (परमप्पा विमल निव्वुए जंति) अपने विमल स्वभाव में लीन होने से आत्मा परमात्मा होता है और निर्वाण चला जाता है अर्थात् सिद्ध परमात्मा हो जाता है, जहां से फिर संसार में आवागमन जन्म-मरण नहीं होता ।
विशेषार्थ शुद्ध तत्त्व, निज शुद्धात्म स्वरूप का उपदेश परम जिनेन्द्र परमात्मा ने उपदिष्ट किया है। वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी अनंत चतुष्टय के धारी केवलज्ञानी परमात्मा की दिव्यध्वनि में निज शुद्धात्म स्वरूप को कहा है। आत्मा पूर्ण ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यक्त्व चारित्रादि शुद्ध गुणों का सागर है, परम निराकुल है, परम वीतराग है, ज्ञानावरणादि आठों द्रव्य कर्म, रागादि भाव कर्म, शरीरादि नोकर्म से भिन्न है, शुद्ध चैतन्य ज्योतिर्मय है । परभावों का न तो कर्ता है, न परभावों का भोक्ता है, यह सदा निज स्वभाव के रमण में रहने वाली स्वानुभूति मात्र है।
आत्मानुभव को ही धर्म ध्यान कहते हैं। कषाय रहित होने से शुक्लध्यान होता है। इसी से चार घातिया कर्म क्षय होते हैं तब आत्मा अरिहंत परमात्मा हो जाता है। शेष अघातिया कर्मों के दूर होने पर वही सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
अपने आत्मा को जो कोई यथार्थ अनुभव करेगा वही सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की एकता रूप मोक्षमार्ग का साधन करेगा। यह
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