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गाथा-५५८-५६१HHE7-2------
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******** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
प्रश्न - जब तक कर्मोदय संयोग अशुद्ध पर्याय है तब तक यह कैसे होगा?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंकमलं अनन्त दिही, छेयं कम्मान दव्य बंधानं । छेयं जदि चेयनयं, कमल सुभावेन केवलं सहियं ॥५५८॥ पादं विपनिक रूर्व, जैवन्तो परदव्व परमुहो तंपि। जइजइवंत सहावं,पाद विपिऊन पज्जाव गलियं च ॥५५९॥ मानापमान सुद्धं, माया मानं च सरनि विलयं च । छिंदन्ति विविहि कम्म, छिंदतो पर दव्य भाव सभावं ॥५६०॥
अन्वयार्थ - (कमलं अनन्त दिट्ठी) ज्ञायक ज्ञानोपयोग की जब अपने अनंत चतुष्टय स्वरूप पर दृष्टि होती है (छेयं कम्मान दव्व बंधानं) तब द्रव्य कों के बंधन क्षय हो जाते हैं (छेयं जदि चेयनयं) जब चैतन्य का अनुभव होता है तब कर्म छिद जाते हैं (कमल सुभावेन केवलं सहियं) और शुद्धोपयोग के रमण से केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
(षादं षिपनिक रूवं) क्षपणक अर्थात् वीतराग निर्ग्रन्थ साधु जब ध्यान समाधि में लीन होता है (जैवन्तो परदव्व परमुहो तंपि) तो परद्रव्य, परोन्मुखी दृष्टि को जीत लेता है (जइ जइवंत सहावं) आत्म स्वभाव सदा जयवंत रहता है (षादं षिपिऊन पज्जाव गलियं च) इससे सब कर्मोदय क्षय हो जाते हैं और पर्याय भी गल जाती है।
(मानापमान सुद्ध) वीतराग निर्ग्रन्थ साधु, मान अपमान में समान भाव रखने वाला शुद्ध दृष्टि, समभावी होता है (माया मानं च सरनि विलयं च) इससे माया मान और संसार का परिभ्रमण सब विला जाता है (छिंदन्ति विविहि कम्म) विविध कर्म क्षय हो जाते हैं (छिंदंतो पर दव्व भाव सभाव) तथा परद्रव्य सम्बंधी सर्व रागादि भावों को छेद डालता है।
विशेषार्थ- आत्म शक्ति जाग्रत होने पर शुद्धात्मा के ध्यान से जो शुद्धोपयोग रूपी छैनी बनती है वही वह शस्त्र है जो घातिया कर्मों का क्षय * करके केवलज्ञान को प्रगट करता है। वीतराग निर्ग्रन्थ साधु क्षपणक अर्थात्
क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता है, ध्यान समाधि में लीन होता है तो सब कर्मोदय
संयोग अशुद्ध पर्याय विला जाती है, सारे कर्म बंधन क्षय हो जाते हैं और जय-जयकार मच जाती है।
यही स्वभाव साधना जयवंत हो, जो साधुपद से सिद्धपद देने वाली है। कर्मोदय संयोग और अशुद्ध पर्याय को गलाने विलाने के लिये वीतराग निर्ग्रन्थ साधुपद आवश्यक है। साधु वह होता है जो मान-अपमान में समान भाव रखने वाला शुद्ध दृष्टि समभावी हो । इसी से माया, मान और संसार परिभ्रमण छूटता है। नाना प्रकार के कर्म तथा परद्रव्य सम्बंधी रागादि भावों को क्षपणक साधु ही क्षय करता है।
_केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये निर्ग्रन्थ वीतराग दिगम्बर परिग्रह रहित साधुपद आवश्यक है। यद्यपि शरीर का नग्न होना, पुद्गल पर्याय है, आत्मा से भिन्न है तथापि इस रूप के होते हुए पूर्ण अहिंसा व पूर्ण परिग्रह त्याग बनता है तथा प्रमत्तादि गुणस्थानों में जिस प्रकार ध्यान की सिद्धि होना चाहिये वह सिद्धि होती है। वीतरागी साधु भावापेक्षा भी सर्व राग-द्वेष, मोह का त्यागी होकर ध्यान करता है, तब क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर चार घातिया कर्म क्षय कर केवलज्ञानी अरिहंत हो जाता है, फिर आयु कर्म के क्षय होने पर शरीर रहित सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
जिसे मोक्ष प्राप्त करना हो उसे मुनि होकर शुद्धोपयोगी चारित्र दशा अंगीकार करना ही पड़ेगी। समकिती जीव ने आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद का स्वाद चखा है, वह जब वैराग्य पूर्ण होकर साधुपद धारण करता है और ध्यान में स्थिर होता है तब सब कर्मोदय संयोग अशुद्ध पर्याय गल जाती है, विला जाती है, उस समय आनंद ही आनंद, परमशांति, जय-जयकार मचती है।
कोई निंदा करे कि प्रशंसा करे उससे हमारे आत्मा को कुछ भी हीनता या अधिकता नहीं, हम तो राग-द्वेष रहित अपने चैतन्य के समरस का पान 0 करते हैं। हम तो अपने धूव चिदानंद स्वरूप में आसन लगाकर बैठे हैं, यह वीतरागी संतों की दशा है जो सदा जयवंत रहे।
प्रश्न- यह साधुपद से सिद्धपद कैसे प्राप्त होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंग्रहनं चरन विसेस,झानं ठानं च मिच्छ गलियं च। झानं उववंन भावं, गिर उववन्न निम्मलं ममलं ॥५६१ ॥
长沙长卷卷卷者长。
HI-E-HEERE