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******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी पन पाय कम्म मुक्क, इज सभाव मग्ग दिस्टंति। नो उववन्न सहावं, नो सभाव दिस्टि इस्टं च ॥ ५६२॥ नो क्रित उत्पन्न सहावं, टंकोत् नन्त अनन्त परिनामं। जइटकोतं सहियं, नो उत्पन्न कम्म विलयंति ॥ ५६३॥ चू ऊर्ध सुद्ध सहियं, ठंकारं मुक्ति झान ममलं च। जइ ठान झान सहावं,चू संसार सरनिगलियं च ॥५६४ ॥
अन्वयार्थ - (ग्रहनं चरन विसेस) विशेष चारित्र को ग्रहण करने अर्थात् वीतराग निर्ग्रन्थ साधुपद धारण करने से (झानं ठानं च मिच्छ गलियं च) ज्ञान स्वभाव की दृढ़ता से सब मिथ्यात्व गल जाता है (झान उववन्नं भावं) आत्मज्ञान के भाव प्रगट होते हैं (गिर उववन्न निम्मलं ममलं) जिससे निर्मल ममल स्वभाव की वाणी प्रगट होती है।
(घन घाय कम्म मुक्कं) चार घातिया कर्मों के क्षय होने से (ईर्ज सुभाव मग्ग दिस्टंति) सहज स्वभाव का मार्ग दिखने लगता है अर्थात् केवलज्ञान स्वभाव प्रगट हो जाता है (नो उववन्न सहावं) तथा नौ क्षायिक लब्धि रूप स्वभाव प्रगट हो जाता है (नो सभाव दिस्टि इस्टं च) अपना इष्ट प्रिय नो अर्थात् सूक्ष्म स्वभाव प्रगट दृष्टि में आ जाता है।
(नो क्रित उत्पन्न सहावं) अपने स्वभाव में नौ लब्धि पैदा होने से (टंकोत् नन्त अनन्त परिनाम) अनंतानंत परिणाम रूप कर्म के बंधन टूट जाते हैं (जइ टकोतं सहियं) ऐसे कर्म बंधन काटने के ध्यान सहित होने पर (नो उत्पन्न कम्म विलयंति) नो कर्म से पैदा हुआ शरीर भी छूट जाता है।
(चू ऊर्ध सुद्ध सहियं) परिपूर्ण श्रेष्ठ शुद्ध स्वभाव सहित (ठंकारं मुक्ति झान ममलं च) ममल केवलज्ञान स्वभाव से मुक्ति की ठंकार लगती है (जइ ठान झान सहावं) अपने ज्ञान स्वभाव में लीन होने से (चू संसार सरनि गलियं च) चुकता अर्थात् पूर्ण रूप से संसार परिभ्रमण छूट जाता है।
विशेषार्थ- श्रेष्ठ चारित्र को धारण करने और अपने ज्ञान स्वभाव में स्थित रहने से सब मिथ्यात्व मोहनीय कर्म विला जाता है । क्षपणक साधु का प्रिय साध्य केवलज्ञान अरिहंत पद है।शुद्धोपयोग की स्थिरता से चार घातिया कर्म क्षय होते हैं तथा नौ क्षायिक लब्धियां प्रगट हो जाती हैं-१. अनंत ज्ञान,
गाथा-५६१-५६८ *****-*-*-*--*-* २. अनंत दर्शन, ३. क्षायिक दान, ४. क्षायिक लाभ, ५. क्षायिक भोग, ६.क्षायिक उपभोग,७.क्षायिक वीर्य,८.क्षायिक सम्यक्त्व,९. क्षायिक चारित्र यह नौ गुण सदा ही बने रहते हैं।
आत्मानुभव रूपी खड्ग से कर्मों का छेद होता है । कर्म नष्ट होने पर शरीर भी छूट जाता है और यह आत्मा सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
निर्वाण का साक्षात् उपाय निर्ग्रन्थ साधुपद ही है, इस ही पद को धारकर सर्व ही प्रचीन काल के तीर्थंकरों व महात्माओं ने उक्त प्रकार का आत्मज्ञान, आत्मध्यान करके धर्मध्यान व शुक्लध्यान प्राप्त कर निर्वाण लाभ किया है।
जब योगी क्षपक श्रेणी माड़कर द्वितीय शुक्लध्यान के बल से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय चारों घातिया कर्मों का सर्वथा क्षय कर देता
है, तब तेरहवें गुणस्थान में आकर केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा हो जाता है। 9 नौ क्षायिक लब्धियां प्रगट हो जाती हैं। अघातिया कर्म शरीरादि के छूटने पर सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
प्रश्न - यह द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म कैसे विलाते हैं?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंचूकंच कम्मवली, छेयं पर भाव कम्म तिविहं च। जदिछेय भाव पिच्छदि, चूकं कम्मान मुक्ति गमनंच॥५६५॥ नो कृत कम्म विपन, जैवन्तो न्यान दंसनं चरन । जैजैवन्त उवन्न, नोकित पर दव्व भाव गलियं च ॥५६६॥ धी ईर्ज पंथ सुद्ध,झान समत्थेन ऊर्ध सुद्धसभावं। जैझान ठान सुद्ध, धी ईर्ज सभाव मुक्ति गमनं च॥५६७॥ गिर उववन्न अनन्तं, नो क्रित कम्म उववन्न विलयंति। जैनो सुभाव सुद्धं, ग्रहनं षिपिऊन कम्म बन्धानं ।। ५६८॥
अन्वयार्थ - (चूकं च कम्मवली) सम्यक् दृष्टि ज्ञानी साधु कर्मबली को जीत लेता है (छेयं परभाव कम्म तिविहं च) उसके रागादि परभाव क्षय हो जाते हैं और कर्म गल जाते हैं (जदि छेय भाव पिच्छदि) यदि क्षायिक भाव पकड़ में आ गया तो (चूकं कम्मान मुक्ति गमनं च) सब कर्मों से रहित होकर मोक्ष चला जाता है।
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