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*-箪业-章惠 華富
*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
में भ्रमण कराने वाले अनंत कर्म भी क्षय हो जाते हैं।
भावों की व ध्यान की शुद्धि के लिये तथा इंद्रियों को जीतने के लिये शल्य को त्यागकर व संसार, शरीर, भोगों से वैराग्यभाव धारणकर साधक को बारह तप का अवश्य आचरण करना चाहिये। इससे शुद्धोपयोग की साधना में सहयोग मिलता है तथा अनंत कर्मों का क्षय होता है।
बारह तप निम्न प्रकार हैं
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छह बाह्य तप
१. अनशन - चार प्रकार के आहार का त्याग कर उपवास करना व धर्मध्यान में रत रहना ।
२. ऊनोदर - उदर भर न खाना, भूख से कम खाना ।
३. वृत्ति परिसंख्यान - अपनी वृत्ति को मोड़ने के लिये संख्या का नियम रखना, भिक्षा को जाते हुए कोई प्रतिज्ञा लेना, बिना कहे पूरी होने पर आहार लेना, नहीं तो उपवास करना ।
४. रस परित्याग - दूध, दही, घी, मीठा, नमक, तेल इन छह रसों में से एक व अनेक का त्याग करना ।
५. विविक्त शय्यासन- एकांत में शयन व आसन रखना।
६. कायक्लेश- काय को कठिन कठिन तरह से रखकर व आसन
लगाकर तप करना ।
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छह अंतरंग तप
१. प्रायश्चित - दोष लगने पर दंड लेकर दोष मेटना ।
२. विनय रत्नत्रय धर्म व धर्मात्माओं का आदर करना ।
३. वैयावृत्य - रोगी, वृद्ध, निर्बल, थके हुए धर्मात्माओं की सेवा करना । ४. स्वाध्याय - शास्त्रों को पढ़ना व मनन करना ।
५. व्युत्सर्ग- शरीरादि से ममत्व को त्यागना ।
६. ध्यान- ध्यान समाधि का अभ्यास करना ।
राग-द्वेष, मोह को विजय करने व इंद्रियों को वश करने से ही आत्मा का ध्यान हो सकेगा, इस ध्यान से ही कर्मों की निर्जरा होगी। प्रश्न ध्यान किसका कैसा लगाना चाहिये ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
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गाथा५५७ ----0
टंकार सिद्धरू, टंकारं ज्ञानारूढ़ ममलं च ।
कमलं केवल सहिये, कम्मे चिपिऊन मुक्ति गमनं च ।। ५५७ ।।
अन्वयार्थ - ( टंकारं सिद्ध रूवं) सिद्ध स्वरूप के ध्यान की टंकार लगाना चाहिये (टंकारं झानारूढ़ ममलं च) ज्ञान में दृढ़ स्थिर होकर मैं ममल स्वभावी, सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूं ऐसी एकाग्रता करना (कमलं केवल सहियं) तब कमल स्वरूप ज्ञायक आत्मा में केवलज्ञान का प्रकाश हो जाता है (कम्मं षिपिऊन मुक्ति गमनं च) और सर्व कर्म का क्षय करके आत्मा मोक्ष में चला जाता है।
विशेषार्थ सिद्ध समान अपने आत्मा को ध्याने से ऐसी वीतरागता प्रकाशित होती है, जिससे अरिहंत पद के पश्चात् सिद्ध पद प्राप्त हो जाता है। ज्ञान में दृढ़ स्थिर होकर मैं सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूं ऐसी एकाग्रता होना ही ध्यान है। अड़तालीस मिनिट ऐसे ध्यान की एकाग्रता होने से केवलज्ञान प्रगट हो जाता है और सर्व कर्म का क्षय होने पर सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
जाग्रत अवस्था में ध्यान अंतरंग का एक गहन सुख होता है, जो अनिर्वचनीय है। ध्यान कोई तंत्र मंत्र नहीं है, ध्यान एक साधना है जिसके द्वारा हम अपने भीतर आत्मानंद उपजाते हैं। ध्यान में गहरे स्तर पर चेतना की निर्ग्रन्थ, निर्मल, अखंड सत्ता का दर्शन होता है। ध्यान द्वारा आत्म साक्षात्कार होता है, आत्म ज्योति का दर्शन ही ध्यान है, इससे आत्मा सब कर्म मलों से छूटकर परमात्मा हो जाता है।
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ध्यान की चरम अवस्था में साधक आनंद महोदधि में निमग्न हो जाता है ।
सिद्धोऽहं सिद्ध रूपोऽहं गुणैः सिद्ध समो महान । त्रिलोकाग्र निवासी, चारूपोऽसंख्य प्रदेशवान ॥
मैं सिद्ध हूँ, सिद्धरूप हूँ, मैं गुणों से सिद्ध के समान हूँ, महान हूँ, त्रिलोक के अग्रभाग पर निवास करने वाला हूँ, अरूपी हूँ, असंख्यात प्रदेशी शुद्ध हूँ। इस प्रकार अपने उत्कृष्ट आत्म स्वरूप की निजात्म्य भावना द्वारा, अध्यात्म वेत्ता क्षपक, सर्वत्र सर्वदा स्वात्म ध्यान में लीन रहता है। ध्यानी पुरुष सिद्ध सदृश निजात्मा का ध्यान करता है और कर्म रहित होकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
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