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16--10-31-15
* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-५५३-५५६
-RH प्रश्न- जब तक पर्याय शुद्ध नहीं होती तब तक क्या करें?
शुभकर्म पुण्य बांधकर मनुष्य देव आदि होता है तथा केवल शुद्धात्मा के इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
अवलंबन रूप शुद्धोपयोग से कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान आदि अनंतगुण ममलं दंसन दिड्डी, मलं न पिच्छेइ पज्जाव अनिस्टी।
रूप मोक्ष को पाता है। सहकारं न्यान उवन्नं, तेयं पर दव्व भाव गलियं च ॥५५३॥
इन तीनों प्रकार के उपयोगों में से सर्वथा उपादेय तो शुद्धोपयोग ही है,
इसी से पर्याय में शुद्धता प्रगट होकर केवलज्ञान प्रगट होता है। आत्मानुभव विन्यानन्यान सरूवं, दुबुहि पर भाव दोस विलयं च।
के अभ्यास से ही सर्व रागादि मल व अज्ञान दूर होकर अनंत ज्ञान अनंत दो गुन अनाइ सुख,टंकोत्कीन नंत दंसनं सुद्धं ॥५५४॥ दर्शन प्रगट हो जाते हैं। अन्वयार्थ - (ममलं दंसन दिट्ठी) अपने ममल स्वभाव के दर्शन की
प्रश्न -इसके लिये क्या करना चाहिये। दृष्टि रखो (मलं न पिच्छेइ पज्जाव अनिस्टी) अनिष्ट पर्याय संबंधी मल को
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - मत देखो (सहकारं न्यान उवन्न) ममल स्वभाव की दृष्टि से ही ज्ञान प्रगट द्वादस तप आयस्नं, दोष भाव दुबुहि पर भाव गलियं च । होता है (तेयं पर दव्व भाव गलियं च) और इसी निर्णय से परद्रव्य के भाव
सहकार सुद्ध आचरनं, सल्यमुक्कंच पर दव्व गलियं च ॥५५५॥ गल जाते हैं।
विषयं च राय दोषं, दुबुहि विपनं च सुद्ध सहकारं। (विन्यान न्यान सरूवं) भेदज्ञान के द्वारा ज्ञान स्वभावी आत्मा का अनुभव होने से (दुबुहि पर भाव दोस विलयं च) कुबुद्धि व परभाव संबंधी दोष
दुर्लष्य लष्य रूवं, वारापारं च नन्त कम्म विपनं च ॥५५६ ॥ दूर हो जाते हैं (दो गुन अनाइ सुद्ध) आत्मा अनादि से दो गुण से शुद्ध है
अन्वयार्थ-(द्वादस तप आयरनं) बारह प्रकार तप का आचरण करना (टंकोत्कीन नंत दंसनं सुद्ध) टंकोत्कीर्ण अर्थात् टांकी से उकेरी शिलाखंड चाहिये (दोष भाव दुबुहि पर भाव गलियं च) जिससे द्वेष भाव, दुर्बुद्धि और प्रतिमा के समान शुद्ध अनंत दर्शन वाला है।
परभाव गल जाते हैं (सहकार सुद्ध आचरनं) यह तप सम्यक्चारित्र के लिये विशेषार्थ - अपने ममल स्वभाव की दृष्टि रखो, अशुद्ध पर्यायी सहकारी है (सल्य मुक्कं च पर दव्व गलियं च) इससे शल्यों से मुक्ति हो जाती परिणमन को मत देखो, ममल स्वभाव की दृष्टि से कर्म क्षय होते हैं, पर्याय में है और परद्रव्य का संयोग छूट जाता है। शुद्धि आती है और ज्ञान का प्रकाश होता है।
(विषयं च राय दोषं) विषय और राग द्वेष (दुबुहि षिपनं च सुद्ध सहकार) भेदविज्ञान से आत्मानुभूति, आत्मज्ञान होने पर कुबुद्धि और परभाव तथा दुर्बुद्धि, अपने शुद्धात्म स्वभाव के सहकार से क्षय हो जाते हैं (दुर्लष्य आदि दोष दूर हो जाते हैं । आत्मा चैतन्य और अमूर्तिक इन दो गुणों से लष्य रूवं) दुर्लक्ष्य अर्थात् अनादि से जिसका लक्ष्य नहीं किया, ऐसे अपने अनादि से शुद्ध है। शुद्धोपयोग की साधना से टंकोत्कीर्ण आत्मा का अनंत सत्स्वरूप के लक्ष्य से (वारापारं च नन्त कम्म षिपनं च) जिनका कोई चतुष्टय स्वरूप प्रगट हो जाता है।
आर-पार ठिकाना नहीं है, ऐसे अनंत कर्म क्षय हो जाते हैं। जैसे-स्फटिक मणि शुद्ध उज्ज्वल है, उसमें जैसा डाक लगाया जाये
विशेषार्थ- अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होना अंतरंग तप है और * वैसा दिखाई देता है और यदि कुछ भी न लगायें तो शुद्ध स्फटिक ही है, उसी बारह प्रकार के तप का आचरण करना व्यवहार तप साधन है। इन दोनों के * तरह आत्मा चैतन्य और अमूर्तिक इन दो गुणों से अनादि से शुद्ध है, टंकोत्कीर्ण सहकार से द्वेषभाव, दुर्बुद्धि और परभाव गल जाते हैं, शल्ये छूट जाती हैं और
ममल स्वभावी है। मिथ्यात्व और विषय कषाय आदि अशुभ के अवलंबन से परद्रव्य का संयोग भी छूट जाता है। अशुभ कर्म पाप को बांधकर नरक निगोद आदि के दु:खों को भोगता है और
निज शुद्ध स्वरूप में लीन होने,शुद्धोपयोग रूप शक्लध्यान की साधना पंच परमेष्ठी के गुण स्मरण आदि तथा दया दान पूजादि शुभ क्रियाओं से ... से पांचों इंद्रियों के विषय राग-द्वेष, दुर्बुद्धि क्षय हो जाते हैं तथा संसार समुद्र **** * **
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