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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
कारन कज्ज उपत्ती, कलुस भाव अनिस्ट नहु दिहं । नेयं निरुपम सुद्धं, नेयं परदव्व सहाव गलियं च ।। ५४९ ।। ममात्मा ममल सरूवं, मल मुक्कं नंत दंसनं ममलं ।
तेयं च तिक्त असुहं, तेयं च अप्प परमप्प संदर्स ।। ५५० ।। दुर्लभ्य लक्ष्य रु दुहि सहकार कम्म विलयति ।
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वयनं च सुद्ध वचनं चेयन संजुत कम्म चिपनं च ।। ५५१ ।। कलं सुभाव न दिट्ठ, न्यान विन्यान समय संजुत्तं ।
नंतानंत सुभावं, उववन्नं सुद्ध परम न्यानं च ।। ५५२ ।।
अन्वयार्थ - (कारन कज्ज उपत्ती) कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है (कलुस भाव अनिस्ट नहु दिट्ठ) कलुष भाव और अनिष्ट पर्याय को मत देखो (नेयं निरुपम सुद्धं) अपना शुद्ध स्वभाव अनुपम विलक्षण है, ऐसा निर्णय में लिया, स्वीकार किया है (नेयं परदव्व सहाव गलियं च) इसी निर्णय से परद्रव्य स्वभाव गल जाता है।
(ममात्मा ममल सरूवं) मेरा आत्मा ममल स्वभावी है (मल मुक्कं नंत दंसनं ममलं) सर्व कर्म मल रहित ममल, अनंत दर्शन वाला है (तेयं च तिक्त असुहं) ऐसा निश्चित होने से सब अशुभ, पर्याय आदि भाव छूट जाते हैं (तेयं च अप्प परमप्प संदर्स) ऐसा तय निश्चित होने से आत्मा, परमात्म स्वरूप दिखाई देता है ।
(दुर्लष्य लक्ष्य रूवं) जब दुर्लक्ष्य अर्थात् मन वचन काय से न जानने योग्य ऐसा अपना आत्म स्वरूप लक्ष्य में आ जाता (दुबुहि सहकार कम्म विलयंति) तब दुर्बुद्धि के सहकार से होने वाले कर्म विला जाते हैं (वयनं च सुद्ध वयनं) तथा वचन भी शुद्ध वचन निकलते हैं (चेयन संजुत्त कम्म षिपनं च) आत्मा के चैतन्य स्वभाव में रमण करने से ही कर्मों का क्षय होता है ।
(कलं सुभाव न दिट्ठ) शरीर के स्वभाव को मत देखो (न्यान विन्यान समय संजुत्तं) भेदविज्ञान पूर्वक अपने आत्म स्वभाव में लीन रहो (नंतानंत सुभावं ) इससे अपना अनंत चतुष्टयमयी स्वभाव ( उववन्नं सुद्ध परम न्यानं च) परम शुद्ध केवलज्ञान स्वरूप प्रगट हो जाता है।
विशेषार्थ कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है, जैसा कारण होता है
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गाथा ५४९-५५२ *** वैसा कार्य होता है । कलुष भाव-मोह क्षोभ युक्त परिणाम और अशुद्ध पर्याय को मत देखो। जैसा अपना अनुपम विलक्षण शुद्ध स्वभाव अनुभूति में आया है, निर्णय में लिया, स्वीकार किया है, इसी निर्णय से पर द्रव्य स्वभाव गल जाता है।
अपने आत्मा का स्वभाव निश्चय से परम शुद्ध है। परमात्मा के समान ज्ञानानंद मय है ऐसी भावना ही आत्मा को परमात्मा के पद पर पहुंचा देती है। दुर्लक्ष्य से हटकर अपने स्वरूप का लक्ष्य होने पर, दुर्बुद्धि से होने वाले कर्म विला जाते हैं, वचन वर्गणा भी शुद्ध हो जाती है और चैतन्य स्वरूप में रमण करने से सब कर्म क्षय हो जाते हैं, कर्म क्षय होने से पर्याय अपने आप शुद्ध हो जाती है ।
शरीरादि संयोग को मत देखो, भेदविज्ञान पूर्वक अपने आत्म स्वभाव में लीन रहो, इससे पर्याय की अशुद्धि दूर होकर अनंत चतुष्टयमयी केवलज्ञान स्वभाव प्रगट हो जाता है, शुद्धात्मानुभव ही मोक्षमार्ग है ।
आत्मा का दर्शन या आत्मानुभव ही एक सीधी सड़क है जो मोक्ष के सिद्ध महल तक गई है। सिद्ध पद न तो किसी की भक्ति से मिल सकता है, न बाहरी जप, तप व चारित्र से मिल सकता है, वह तो केवल अपने ही आत्मा के यथार्थ अनुभव से ही प्राप्त होता है।
साधक को आत्मा का स्वरूप ही ठीक-ठीक जानना चाहिये कि यह स्वतंत्र द्रव्य है, सत् है, द्रव्य अपेक्षा नित्य है। समय-समय परिणमन शील होने से पर्याय अपेक्षा अनित्य है। हर समय उत्पाद, व्यय, धौव्य स्वरूप है या गुण पर्यायमय है । गुण सदा द्रव्य के साथ रहते हैं, द्रव्य, गुणों का ही समुदाय है। गुणों में जो परिणमन होता है उसे ही पर्याय कहते हैं ।
आत्मा पूर्ण ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्र आदि शुद्ध गुणों का सागर है, परम निराकुल है, परम वीतराग है, ज्ञानावरणादि आठों द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म, शरीरादि नोकर्म से भिन्न है, शुद्ध चैतन्य ज्योतिर्मय है। परभावों का न तो कर्ता है, न परभावों का भोक्ता है। यह सदा स्वभाव में रहने वाला स्वानुभव मात्र है।
इस तरह साधक अपने आत्मा के शुद्ध ममल स्वभाव की प्रतीति करके इसी में रमण करता है। शुद्धोपयोग की साधना से पर्याय में शुद्धि होकर केवलज्ञान प्रगट होता है।
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