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गाथा-५४२-५४४
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करना चाहिये, इसी से मोक्ष पद की प्राप्ति होती है।
प्रश्न- यह कर्म संयोग, त्रिविध कर्म कैसे छूटते है,क
छूटते
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********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
आ गया (लंक्रित सदव्व परदव्व नहु पिच्छ) तो स्वद्रव्य से भरपूर, अलंकृत रहो, परद्रव्य को मत देखो (हींकार सुद्ध उवन्नं) इससे तीर्थंकर स्वरूप प्रगट होगा (हुंत परभाव षिपिय मोहंधं) इससे परभाव नष्ट हो जाते हैं और दर्शन मोहांध भी क्षय हो जाता है।
विशेषार्थ- अपनी आत्मशक्ति जाग्रत करो, श्रेष्ठ शुद्ध स्वभाव प्रगट करो । आत्म जागरण होने पर सब परभाव विला जाते हैं। अपना स्वभाव तो सरल और विशाल है, ऋजुमति, विपुलमति ज्ञानवाला है। अपने इष्ट स्वभाव में लीन रहो, अब यह कर्मोदय जन्य पर्यायी परिणमन को मत देखो।
जब अपने ममल स्वभाव का अनुभव हो गया, प्राप्त हो गया तो स्वद्रव्य में रहो, परद्रव्य की तरफ मत देखो। अपने शुद्ध ममल स्वभाव में रहने से तीर्थंकर स्वरूप केवलज्ञान शुद्ध स्वभाव प्रगट होता है, जिससे सारे परभाव नष्ट हो जाते हैं और दर्शन मोहांध भी क्षय हो जाता है।
जिसको मुक्त होने की भावना है, जो सिद्ध परम पद चाहता है, चारों गतियों की सर्व कर्म जनित दशाओं को त्यागने योग्य समझता है, जो अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य अनंत चतुष्टय प्राप्त करना चाहता है, यही परमइष्ट, परम लाभकारी है, जो निश्चय से जानता है कि मैं परिपूर्ण शुद्ध सिद्ध के समान शुद्धात्मा हूँ, व्यवहार दृष्टि में कर्म का संयोग है, सो त्यागने योग्य है, जो संसार वास में क्षण मात्र भी नहीं रहना चाहता है,वह सम्यक्दृष्टि ज्ञानी है। वह जानता है कि निर्वाण का उपाय मात्र एक अपने ही शुद्ध आत्मा के शुद्ध स्वभाव में रमण करना है, इसी से तीर्थकर केवलज्ञान स्वरूप प्रगट होता है।
जब तक चित्त परद्रव्य के व्यवहार में रहता है, परभावों में संलग्न रहता है तब तक भव्य जीव कठिन-कठिन तप करता हुआ भी मोक्ष को नहीं पाता है।
सम्यक्दृष्टि जीव सदा ही भेदविज्ञान के द्वारा अपने शुद्धात्मा को भिन्न * ध्याता है। धीरे-धीरे ममल स्वभाव की साधना करता है फिर साधुपद से पक्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर मोह का व शेष ज्ञानावरणादि कर्मों का पूर्ण * क्षय करके केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा हो जाता है तब अविनाशी अनंत * सुख का भोगने वाला हो जाता है इसलिये मुमुक्षु को पुरुषार्थ पूर्वक अपनी * आत्म शक्ति जाग्रत कर निज शुद्धात्मा का स्मरण, ध्यान, साधना, आराधना ***** * * ***
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दण्डकपार्टममलं, नासंति तिविहि कम्मान नेय बंधान। रेहंति इस्ट रूवं, नू उत्पन्न न्यान नट्ठ कम्मानं ॥५४२॥ वरं च अद सहावं, वर दंसन न्यान चरन ममलं च। दुड नट्ठ कर्म, परभाव परमहो जोगी।।५४३॥ हंतून कम्म दोसं, अनन्त विषेसेन अद सहकारं । चेयन अनन्त रूवं, उत्पन्नं पर दव्य भाव विलयं च ॥५४॥
अन्वयार्थ - (दण्ड कपाटं ममलं) अपने ममल स्वभाव की स्थिरता रूप केवलज्ञान होने पर, केवली समुद्घात दण्ड, कपाट, प्रतर, लोकपूरण होता है तब (नासंति तिविहि कम्मान नेय बंधानं) तीनों प्रकार के कर्म और सब कर्म संयोग छूट जाते हैं (रेहंति इस्ट रूवं) अपने इष्ट स्वरूप में रहने से (नू उत्पन्न न्यान नट्ठ कम्मानं) घातिया कर्मों के क्षय होने पर उत्कृष्ट केवलज्ञान प्रगट होता है।
(वरं च अद सहावं) श्रेष्ठ आत्मा का स्वभाव तथा (वर दंसन न्यान चरन ममलं च) श्रेष्ठ दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप ममल स्वभाव में रहने से (दुट्ठ नट्ट कम्म) दुष्ट आठों ही कर्म नष्ट हो जाते हैं (डेभं परभाव परमुहो जोगी)
अपने स्वरूप में स्थित योगी की परभाव और परोन्मुखी दृष्टि ढह जाती है 6 अर्थात् विला जाती है।
(हंतून कम्म दोस) कर्म कलंक के नष्ट होने पर (अनन्त विषेसेन अद सहकारं) आत्मा की अनंत विशेषतायें प्रगट हो जाती हैं (चेयन अनन्त रूवं) चैतन्य मय अनंत स्वरूप झलकने लगता है (उत्पन्नं पर दव्व भाव विलयं च) परद्रव्य के भाव पैदा होना ही विला जाते हैं।
विशेषार्थ-क्षायिक सम्यक्दृष्टि जीव चार अनंतानुबंधी कषाय और दर्शन मोह की प्रकृतियों को क्षय कर देता है तब क्षायिक सम्यक्त्व व
स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट होता है। इन शक्तियों के प्रगट होने पर जब कभी २९६
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