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गाथा-५३८-५४१*****-*-*-*--*-*
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
आत्मा अपने ही ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि गुणों का स्वामी है। इस * आत्मा का भोजन पान आदि अतीन्द्रिय आनंद, अमृत रस है। यह मात्र शुद्ध * ज्ञान का स्वाद लेने वाला है। इसमें निश्चय से राग-द्वेष रूप कार्य करने तथा * सुख-दुःख भोगने रूप कर्म फल चेतना नहीं है।
सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान का प्रकाश होते ही माया का चक्कर और सब कर्म बंधोदय क्षय हो जाते हैं, संसार परिभ्रमण छूट जाता है।
प्रश्न- जब यह आत्मा श्रेष्ठ,कर्म नाशवान फिर यहचकर क्यों चल रहा है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंनो लष्य लष्य लष्यं, नो कम्मान पज्जाव गलियं च। रितियं अद सहावं, गिरा उववन्न नंत विमलं च ।। ५३८॥ गगन सुभाव उवन्न, गलंति पर भाव पज्जाव अनिस्टं। हलवं ति कम्म भारं,दण्ड कपाटेन नन्त दंसनंचरनं। ५३९ ॥
अन्वयार्थ - (नो लष्य लष्य लष्यं) मन वचन काय से न जानने योग्य आत्मा जब अनुभव में आ जाता है अर्थात् जब शुद्धात्मानुभव पैदा हो जाता है (नो कम्मान पज्जाव गलियं च) तब शरीरादि नोकर्म रूप पर्याय गलने लगती है (रितियं अद सहावं) अपने शुद्धात्म स्वभाव में रमण होते ही (गिरा उववन्न नंत विमलं च) अनंत निर्मल केवलज्ञान स्वरूप दिव्यध्वनि प्रगट हो जाती है।
(गगन सुभाव उवन्न) जब आकाश के समान निर्लेप निर्विकार स्वभाव प्रगट होता है (गलंति पर भाव पज्जाव अनिस्ट) तब सब अनिष्टकारी रागादि भावों की परिणतियां गल जाती हैं (हलवं ति कम्म भारं) कर्मों का भार हल्का हो जाता है (दण्ड कपाटेन नन्त दंसनं चरनं) मन वचन काय के निरोध भाव से अर्थात् शुक्लध्यान से अनंत दर्शन व यथाख्यात चारित्र प्रगट हो जाता है।
विशेषार्थ - धर्म उसे ही कहते हैं जो संसार के दु:खों से कर्मबंधनों से *छुड़ाकर मोक्ष प्राप्त करा दे, वह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है, रत्नत्रय के भाव से ही *नवीन कर्मों का संवर होता है व पूर्व कर्मों की निर्जरा होती है। यह रत्नत्रय
निश्चय से एक आत्मीक शुद्ध भाव है, आत्म तल्लीनता है, स्वसंवेदन है, स्वानुभव है। जहां अपने ही आत्मा के शुद्ध स्वभाव का श्रद्धान, ज्ञान, उसमें
ही लीनता है, इसको आत्मदर्शन कहते हैं । यही एक धर्म रसायन है, अमृत ... **** * **
रस का पान है, जिसके पीने से स्वाधीनपने परमानंद का लाभ होता है और शीघ्र ही कर्मों से मुक्त होकर शुद्ध निर्मल पूर्ण निज स्वभावमय होकर सदा ही ज्ञानानंद में मगन रहता है।
मन वचन काय से न जानने योग्य आत्मा जब अनुभव में आता है तब शरीरादि पर्यायी भाव गलने लगता है। शुद्धात्म स्वरूप में रमण होते ही कर्म क्षय होने लगते हैं । घातिया कर्मों का क्षय होने पर केवलज्ञान स्वभाव प्रगट हो जाता है।
केवलज्ञानी परमात्मा अपने परमानंद में मगन रहते हैं तब शरीरादि नोकर्म, रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म अपने आप क्षय होते जाते हैं। आयु पूर्ण होते ही सब कमों से मुक्त सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं।
ऐसा आत्म पुरुषार्थ जाग्रत करो तो यह सब चक्कर समाप्त हो जायेगा। आत्मा स्वभाव से आकाश के समान निर्मल, निर्लेप है। जब ज्ञानी साधक का उपयोग इसी श्रद्धा, ज्ञान व चारित्र में जम जाता है तब भावकर्म नहीं रहते, घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रगट हो जाता है तथा शरीरादि संयोग के छूटते ही सिद्ध परमात्मा हो जाता है। जहां यह सब संसार परिभ्रमण, कर्मों का चक्कर विला जाता है।
प्रश्न-इसके लिये क्या करें?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंउत्पन्न उर्थ सुद्धं, उवलयं अद सहाव पर विलयं । रिजु विपुलं च सहावं,दिस्टंइस्टी संजुत्त अनिस्ट नहु दिलै॥५४० ॥ लब्ध ममल सहावं, लक्रित सदव्व पर दव्व नहु पिच्छं। ह्रींकार सुद्ध उवन्नं, हुंत पर भाव षिपिय मोहंधं ॥५४१॥
अन्वयार्थ - (उत्पन्न उर्ध सुद्ध) अपना श्रेष्ठ शद्ध स्वभाव प्रगट करो (उवलष्यं अद सहाव पर विलयं) आत्म स्वभाव के उपलब्ध होने पर सब पर संयोग विला जाते हैं (रिजु विपुलं च सहावं) आत्मा का स्वभाव सरल व विशाल है अथवा आत्मज्ञान होने से रिजुमति, विपुलमतिज्ञान प्रगट होता है (दिस्टं इस्टी संजुत्त अनिस्ट नहु दि8) अपने इष्ट स्वरूप को देखने से अनिष्ट रूप पर पर्याय नहीं दिखती।
(लब्धं ममल सहाव) जब ममल स्वभाव प्राप्त हो गया अर्थात् अनुभव में
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