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गाथा-५४५-५४७*
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
ज्ञानी अपने उपयोग को अपने आत्मा में स्थिर करता है, तब ही स्वरूप * का अनुभव आता है व अतीन्द्रिय आनंद का स्वाद आता है, अविरत * सम्यक्दृष्टि को चौथे गुणस्थान में भी इस सुख का प्रकाश हो जाता है फिर * यह क्षायिक सम्यक्दृष्टि ज्ञानी जितना-जितना स्वानुभव का अभ्यास करता
है, उतना कषाय और कर्मों का क्षय होता जाता है तथा अतीन्द्रिय आनंद का अनुभव बढ़ता जाता है।
___पांचवें देशसंयम गुणस्थान में अप्रत्याख्यान कषाय का उदय नहीं होता है, तब चौथे गुणस्थान की अपेक्षा अधिक निर्मल आत्मानुभूति होती है। छठे प्रमत्त गुणस्थान में प्रत्याख्यान कषाय का भी उदय नहीं रहता है तब और अधिक अतीन्द्रिय सुख वेदन में आता है। सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में संज्वलन कषाय का मंद उदय रहता है तब और भी अधिक ममल स्वभाव अतीन्द्रिय आनंद की अनुभूति होती है, कर्मों की सत्ता शक्ति क्षय होती जाती है। आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में संज्वलन कषाय का अति मंद उदय होता है तब और अधिक आत्मानुभूति अतीन्द्रिय आनंद बढ़ता जाता है । नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में अतिशय मंद कषाय का उदय रहता है तथा वीतराग भाव रूप ध्यान की अग्नि बढ़ती जाती है । उस कारण से योगी अनिवृत्तिकरण के दूसरे भाग में अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ व प्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ इन आठ कषाय कर्मों की सत्ता का क्षय कर देता है। तीसरे भाग में नपुंसक वेद का, चौथे भाग में स्त्री वेद का, पांचवें भाग में हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छह नो कषायों का तथा छठवें भाग में पुरुष वेद का, सातवें भाग में संज्वलन क्रोध का, आठवें भाग में संज्वलन मान का, नौवें भाग में संज्वलन माया का क्षय कर देता है तथा दसवें सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ का भी क्षय हो जाता है, तब बारहवें गुणस्थान में जाकर यथाख्यात चारित्र प्रगट होता है, मोहनीय कर्म क्षय हो जाता है।
जब योगी द्वितीय शुक्लध्यान में होता है तब ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय तीनों कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाता है । तब तेरहवें गुणस्थान में * केवलज्ञानी अरिहंत परमात्मा हो जाता है।
केवलज्ञानी परमात्मा के चार घातिया कर्मों का क्षय होने से अनंतदर्शन, *अनंतज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, अनंत वीर्य, अनंत सुख
गुण प्रगट हो जाता है परंतु चार अघातिया कमों का उदय व उनकी सत्ता विद्यमान है।
अरिहंत परमात्मा का जब आयुकर्म समाप्त होता है तब केवली समुद्घात में दंड, कपाट, प्रतर, लोकपूरण से शेष अघातिया कर्मों का क्षय होता है, चौदहवें गुणस्थान में शेष कर्मबंध तथा तीनों कर्मों की सत्ता समाप्त हो जाती है तब यह आत्मा पूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
सिद्ध परमात्मा सब कर्मों से रहित प्रगटपने शुद्धात्मा हैं, वहाँ शरीरादि किसी भी पुद्गल पर द्रव्य का संयोग नहीं है। वे निरंजन निर्विकार हैं, परम कृत कृत्य निश्चल परमानंद मय हैं, ऐसा ही अपने आत्मा का स्वरूप है और सर्व कर्मों से रहित होने का यह मार्ग है।
प्रश्न- यह सब सुनने जानने पर बड़ा आनंद आता है परंतु मन बीच में बाधा डाल देता है, इसका क्या उपाय किया जाये ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंइस्ट संजोय सरूवं, इस्टं परिनाम अनिस्ट विरयमि। कमलस्य सहज आनन्दं, कल लंकित कर्म कृत्य विरयंति॥५४५॥ मन विलयं ससहावं, ममात्मा सुद्ध सहाव ममलं च । तत्काल कम्म गलियं, दोर्ष परदव्व परमुहो तंपि ॥५४६ ॥ दुबुहि उवन्नं विरयं, दुकृत पर दव्व भाव गलियं च । मान परमान सुद्ध, ममात्मा न्यान सहाव समयं च॥५४७॥
अन्वयार्थ-(इस्ट संजोय सरूवं) शद्धोपयोग रूप अपने स्वरूप को संजोओ अर्थात् शुद्धोपयोग की साधना करो (इस्टं परिनाम अनिस्ट विरयंमि) इष्ट परिणाम, शुद्धोपयोग से सर्व रागादि अनिष्ट भाव छूट जाते हैं (कमलस्य सहज आनन्द) कमल के समान प्रफुल्लित सहजानंद में रहने से (कल लंक्रित कर्म कृत्य विरयंति) शरीर सम्बंधी सर्व क्रियाकांड व हलन-चलन बंद हो जाता है।
(मन विलयं ससहाव) अपने स्वभाव में रहने से मन विला जाता है (ममात्मा सुद्ध सहाव ममलं च) मेरा आत्मा शुद्ध ममल स्वभावी है ऐसा दृढ
श्रद्धान ज्ञान होने से (तत्काल कम्म गलियं) शीघ्र ही सब कर्म गल जाते हैं २९७
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