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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
आत्मा परमश्रेष्ठ परमात्मा, ममल स्वभावी हूँ (न्यानं च न्यान अन्मोयं ) ज्ञानपूर्वक ज्ञान स्वभाव के आश्रय रहने से (सिद्धं सुद्धं च सिद्धि संपत्तं ) स्वयं सिद्ध शुद्ध हो जाते हैं, यही सिद्धि की संपत्ति को पाना है।
विशेषार्थ अपना परम पारिणामिक भाव स्वरूप हमेशा दिखने लगे कि मैं आत्मा परमश्रेष्ठ परमात्मा ममल स्वभावी हूँ। ऐसा ज्ञानपूर्वक ज्ञान स्वभाव का आश्रय रहने से स्वयं सिद्ध शुद्ध परमात्मा हो जाते हैं।
चाहे जैसे संयोग में, क्षेत्र में या काल में जो जीव स्वयं निश्चय स्वभाव परम पारिणामिक भाव का आश्रय करके परिणमता है वही जीव मोक्षमार्ग तथा सिद्धि की संपत्ति को प्राप्त करता है।
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अखंड द्रव्य और पर्याय दोनों का ज्ञान होने पर भी अखंड स्वभाव की ओर लक्ष्य रखना कि मैं परम श्रेष्ठ परमात्मा ममल स्वभावी हूँ। उपयोग को एकाग्रता पूर्वक ज्ञान स्वभाव की ओर ले जाना वह अंतर में समभाव को प्रगट करता है। स्वाश्रय द्वारा बंध का नाश करती हुई जो निर्मल पर्याय प्रगट होती है वही मोक्षमार्ग है।
अंतर में शुद्ध स्वरूप की दृष्टि तथा अनुभव होने पर रुचि एवं दृष्टि अपेक्षा से भगवान आत्मा तो अमृत स्वरूप आनंद का सागर है। उसकी रुचि लगन हुए बिना उपयोग पर में से हटकर स्व में नहीं आ सकता; इसलिये अपने स्वसत्ता स्वरूप का दृढ़ निश्चय श्रद्धान ज्ञान द्वारा उपयोग को स्वभाव लगाना ही सिद्धि मुक्ति प्राप्त करने का उपाय है । प्रश्न- इससे क्या होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
तारन तरन उपन्न, नर्स अन्मोय न्यान सहकारं । जिनियं जिनयति रूवं, जिनिये कम्मान सिद्धि संपत्तं ।। ५२४ ।। न्यान सहाव उवन्नं, अन्मोयं सहकार न्यान ससरूवं । न्यानं अन्मोय सहावं, समयं संजुत सिद्धि संपत्तं ।। ५२५ ।। अड्ड गुनं संजुतं, अडइ पुहमी च वास समयं च ।
कम्मं तिविहि विमुक्कं ममल सहावेन सिद्धि संपतं ।। ५२६ ।। अन्वयार्थ (तारन तरन उवन्नं) तारण तरण स्वरूप प्रगट होता है
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गाथा ५२४-५२६ *******
(नंतं अन्मोय न्यान सहकारं) ज्ञान के सहकार से अनंत चतुष्टय स्वरूप प्रगट होता है (जिनियं जिनयति रूवं) वे ही जिन हैं, वे ही जिनेन्द्र स्वरूप साधुपद धारण करके (जिनियं कम्मान सिद्धि संपत्तं) कर्मों को जीतकर सिद्धि संपत्ति मुक्ति पाते हैं ।
( न्यान सहाव उवन्नं) केवलज्ञान स्वभाव प्रगट हो जाता है (अन्मोयं सहकार न्यान ससरूवं) अपने ज्ञान स्वभाव के सहकार और आश्रय से (न्यानं (अन्मोय सहावं ) अपने स्वभाव में लीन रहने से (समयं संजुत्त सिद्धि संपत्तं ) शुद्धात्मा में लीनता ही सिद्धि की संपत्ति अर्थात् मुक्ति है।
(अट्ठ गुनं संजुत्तं) अष्ट गुण सहित हो जाता है अर्थात् सिद्ध भगवान आठ गुण सहित होते हैं (अट्ठइ पुहमी च वास समयं च) आठवीं पृथ्वी के ऊपर उनका निवास सदाकाल अपने शुद्धात्मा में रहता है (कम्मं तिविहि विमुक्कं ) तीनों प्रकार के कर्मों से रहित (ममल सहावेन सिद्धि संपत्तं) अपने ममल स्वभाव में परमानंद में मगन रहते हैं ।
विशेषार्थ आत्मा का स्वरूप सिद्ध के समान शुद्ध है, जो जीव ऐसे अपने आत्म स्वरूप की साधना-आराधना करता है वह स्वयं तारण तरण परमात्मा हो जाता है। आत्मा जिन स्वरूप है, जब साधु पद धारण करके, परम एकाग्र भाव से आत्मा में मगन होता है तब घातिया कर्मों का क्षय होकर अनंत चतुष्टयमयी केवलज्ञान स्वभाव प्रगट होता है ।
वही यथार्थ जिन है क्योंकि उसने रागादि शत्रुओं को व ज्ञानावरणादि कर्म रिपुओं को जीत लिया है वही ईश्वर है क्योंकि अविनाशी परमैश्वर्य का धारी वही परमात्मा है, जो परम कृतकृत्य सर्व प्रकार की इच्छा से रहित है। वही परमात्मा अनंत है क्योंकि वह अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य, अनंत शांति, क्षायिक सम्यक्त्व आदि अनंत गुणों का धारी है । उसी को सिद्ध कहते हैं क्योंकि उसने साध्य को सिद्ध कर लिया है।
सिद्ध परमात्मा के ज्ञानावरणादि आठों कर्मों के क्षय से मुख्य आठ गुण प्रगट होते हैं। सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व तथा अव्याबाधत्व। वे परम शुद्ध स्वभाव में लीन पुरुषाकार, आठवीं पृथ्वी के ऊपर सिद्ध शिला पर विराजित रहते हैं, उनको पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो जाती है, इसी से परम कृतकृत्य हैं। ऐसी भावना करने वाला ज्ञानी ऐसा तृप्त हुआ है कि मानो भावना करता हुआ साक्षात् केवली ही हो गया हो,
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