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गाथा - ५२१-५२३********** यही उपाय है।
सिद्ध भगवान सर्व रागादि मल व ज्ञानावरणादि कर्मों से रहित हैं, नित्य परमानंद में लीन हैं। अमूर्तिक शरीरादि रहित होने पर भी ज्ञान आनंद आदि अनंत गुणों के धारी अतीन्द्रिय परम शुद्ध तत्त्व हैं, वे सर्व कर्म क्षय करके मुक्त
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
ही मुक्ति होती है।
इस प्रकार इन सैंतालीस भाव द्वारा साधक को सावधान किया है कि जब तक भेद दृष्टि है, होने के भाव हैं तब तक बीच में अहंभाव है। इससे हटकर मैं पूर्ण, शुद्ध, मुक्त, सिद्ध हूं इस अनुभूति में डूबना ही शुद्धोपयोग की साधना है इसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
सिद्ध स्वरूपकी विशेषताप्रश्न-सिद्ध स्वरूप की विशेषता क्या है और वह कैसे उपलब्ध होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंसिद्धं च अनंत रूवं, रूवातीतं च विगत रूवं च । ममलं च ममल रूवं, कम पिपिऊन मुक्ति गमनं च॥५२१॥ सिद्धं च सुद्ध सिद्धं, ममल सहावेन कम्म गलियं च। अप्पा परमानन्दं, परमप्पा मुक्ति सिद्धि संपत्तं ॥५२२॥
अन्वयार्थ - (सिद्धं च अनंत रूवं) सिद्ध भगवान अनंत गुणों के धारी हैं (रूवातीतं च विगत रूवं च) उनका स्वरूप अतीन्द्रिय, शरीर रहित, अमूर्तिक है (ममलं च ममल रूवं) सिद्ध स्वरूप सर्व कर्म मलों से रहित ममल स्वरूप है (कम्मं षिपिऊन मुक्ति गमनं च) वे कमों को क्षय करके मोक्ष को गये हैं।
(सिद्धं च सुद्ध सिद्ध) ऐसे सिद्ध के समान में भी शुद्ध सिद्ध हूं (ममल सहावेन कम्म गलियं च) अपने ममल स्वभाव में रहने से कर्म गल जाते हैं (अप्पा परमानन्द) आत्मा परमानंद मय हो जाता है (परमप्पा मुक्ति सिद्धि संपत्तं) परमात्म पद मुक्ति और सिद्धि की संपत्ति अर्थात् सिद्ध स्वरूप को उपलब्ध करने का यही उपाय है।
विशेषार्थ- सिद्ध भगवान अनंत गुणों के धारी हैं, उनका स्वरूप * अतीन्द्रिय शरीर रहित, अमूर्तिक अरूपी है। वे सर्व कर्म मलों से रहित ममल
स्वरूप हैं, उन्होंने समस्त कर्मों को क्षय करके मोक्ष पाया है। ऐसे सिद्ध के समान में भी शुद्ध, सिद्ध स्वरूपी हूं, ऐसा सत्श्रद्धान ज्ञान करके अपने ममल स्वभाव में रहने से कर्म गल जाते हैं । आत्मा परमानंद मय हो जाता है, परमात्मपद मुक्ति, सिद्धि की संपत्ति अर्थात् सिद्ध स्वरूप की उपलब्धि का
इसी प्रकार जो भव्य जीव अपने सत्य स्वरूप का श्रद्धान करता है, ज्ञान करता है और ऐसे अपने सिद्ध स्वरूप ममल स्वभाव में रहता है, उसके भी सारे कर्म क्षय हो जाते हैं और वह आनंद परमानंदमय होता हुआ परमात्म पद, सिद्धि मुक्ति को पाता है।
जहाँ आत्मा, संसार के परिभ्रमण, जन्म-मरण के चक्र से छूटकर परमानंदमय रहे, यही सिद्ध स्वरूप की विशेषता है । वहाँ आत्मा अपने ही निज स्वभाव में सदा मगन रहता है। आत्मा शुद्ध आकाश के समान, निर्मल ममल रहता है।
सिद्ध भगवान पूर्ण ज्ञानी हैं,परम वीतरागी हैं. अतीन्द्रिय सुख के सागर हैं, अनंत वीर्यधारी हैं, शरीरादि कर्मों से रहित अमूर्तिक हैं । पुद्गलादि से सब संयोग छूट गया है। अपनी ही स्वाभाविक शुद्ध परिणति में मगन, परमानंद के भोक्ता, परम कृतकृत्य हैं । सर्व इच्छाओं से शून्य पुरुषाकार हैं । सिद्ध को ही परमेश्वर शिव, परमात्मा, परम देव कहते हैं, वे एकाकी आत्मा रूप हैं। जैसा मूल में आत्म द्रव्य है वैसा ही सिद्ध स्वरूप है।
जो आत्मा, ऐसे अपने शुद्ध आत्मा, सिद्ध स्वरूप का अनुभवपूर्वक ध्यान करता है। साधुपद में अंतर बाहर से निर्ग्रन्थ होकर धर्म शुक्ल ध्यान को ध्याता है । वह शुक्लध्यान से घातिया कर्मों को क्षय कर पहले अरिहंत परमात्मा होता है फिर सर्व कर्म मलों को क्षय करके सिद्ध होता है। ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध आत्मा ठहरता है।
प्रश्न -इसके लिये और क्या करना पड़ता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंपरम भाव दरसीए, परमं परमप्प अप्प ममलं च । न्यानं च न्यान अन्मोयं, सिद्धं सुद्धं च सिद्धि संपत्तं ॥५२३॥
अन्वयार्थ- (परम भाव दरसीए) परम पारिणामिक भाव स्वरूप को देखना चाहिये, यही हमेशा दिखने लगे (परमं परमप्प अप्प ममलं च) मैं
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