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________________ गाथा-५२० ---- ------- ********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी * (विन्यानं न्यान कम्म षिपनं च) भेदविज्ञान का ज्ञान करने से ही कर्म * क्षय होते हैं (अनन्त चतुस्टय सहियं) अनंत चतुष्टय के भाव सहित हो रहे हो * (अनन्ताए नन्त दिस्टि ममलं च) अपनी दृष्टि ममल स्वभाव पर रखो जो * अनंतानंत शक्ति का धारी है। विशेषार्थ-४४. विन्यान भाव-(भेदज्ञान-विशेष ज्ञान के भाव) विशेष ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो तो भेदविज्ञान का ज्ञान प्राप्त करो जिससे सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। भेदविज्ञान आत्मानुभव का कारण है, आत्मानुभव कर्मों के क्षय का कारण है। ४५. अनंत भाव-(अनंत चतुष्टय के भाव) अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य को उपलब्ध करने के भाव हो रहे हैं तो अपने ममल स्वभाव पर दृष्टि लगाओ जो अनंतानंत शक्ति का धारी है। इसी के आश्रय अर्थात् शुद्धोपयोग की साधना से ही अनंत चतुष्टय प्रगट होते हैं। जिसकी बुद्धि में भेदविज्ञान का प्रकाश न हो, उसका शास्त्रज्ञान मोक्षमार्ग में लाभकारी नहीं होता। भेदविज्ञान होने पर यह प्रतीति जमनी चाहिये कि सच्चा आनंद मेरे ही आत्मा का गुण है । इसके लिये सर्व कर्म कलंक रहित वीतरागी व ज्ञाता दृष्टा अपने आत्मा के भीतर श्रद्धा व ज्ञान सहित रमण करना होगा, अन्य सर्व पदार्थों से व सर्व भावों से उपयोग को हटाना पड़ेगा, तभी कर्म क्षय होते हैं। साधक को स्वानुभव रूप शुद्धोपयोग ही एकमात्र हितकारी है। अनंत चतुष्टय की भावना करने मात्र से अनंत चतुष्टय नहीं होते। अपने ममल स्वभाव में दृष्टि लगाने, उपयोग को स्थिर करने पर ही अनंत चतुष्टय प्रगट होते हैं। जो अनंतानंत शक्ति, अनंत गुणों का धारी, निज शुद्धात्म द्रव्य है, उसकी दृष्टि करने, उसका आश्रय लेने पर, उसका स्वानुभव यथा योग्य एक मुहूर्त तक जमा रहे तो चार घातिया कर्मों का क्षय होकर परमात्म स्वरूप प्रगट हो जाये, एक ही साथ अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतसुख अनंतवीर्य का प्रकाश * हो जाता है। आत्मा पूर्ण ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्रादि शुद्ध गुणों * का सागर है, परम निराकुल है, परम वीतराग है, ज्ञानावरणादि आठों द्रव्यकर्म, * रागादि भाव कर्म, शरीरादि नो कर्म से भिन्न, शुद्ध चैतन्य ज्योतिर्मय है। पर भावों का न तो कर्ता है,न पर भावों का भोक्ता है। यह सदा स्वभाव के रमण ***** * * *** में रहने वाली स्वानुभूति मात्र है। इस तरह अपने आत्मा के शुद्ध स्वभाव की प्रतीति करके साधक इसी ज्ञान का मनन करता है। अपने उछलते हुए आत्म प्रकाश में रहकर कर्मबंधन का क्षय करके चैतन्य रूपी अमृत से पूर्ण व शुद्ध होकर मोक्ष पद पाता है। ४६. तरंति भाव, ४७. सिद्ध भाव___ एवं अनेय भावं. तरंति तारयति सुख सभावं । सिद्धं च सर्व सिद्धं, अन्मोयं परिनाम सुद्धममलं च॥५२०॥ अन्वयार्थ-(एयं अनेय भावं) इस प्रकार ऐसे अनेक भाव साधक को होते हैं (तरंति तारयंति सुद्ध सभावं) तरने का भाव है तो अपना शुद्ध स्वभाव ही तारने वाला है (सिद्धं च सर्व सिद्ध) सिद्ध होने का भाव है तो जैसे और सब सिद्ध हुए हैं वैसे (अन्मोयं परिनाम सुद्ध ममलं च) अपने शुद्ध ममल परम पारिणामिक भाव का आश्रय करो, लीन रहो तो सिद्ध हो जाओगे। विशेषार्थ-४६. तरंति भाव- (तरने का भाव) इस भवसागर से तरने का भाव है अर्थात् संसार परिभ्रमण से छूटना, मुक्त होना चाहते हो तो तारने वाला अपना ही शुद्ध स्वभाव है उसका आश्रय लो, शुद्धोपयोग की साधना करो तो तर जाओगे। ४७. सिद्ध भाव- (सिद्ध होने का भाव) सिद्ध होना चाहते हो तो जैसे और सब सिद्ध परमात्मा हुए हैं वैसे अपने शुद्ध ममल, परम पारिणामिक भाव का आश्रय करो उसमें लीन रहो तो सिद्ध हो जाओगे। सिद्ध पद शुद्ध आत्मा का पद है। वहां आत्मा अपने ही निज स्वभाव में सदा मगन रहता है। सिद्धों के समान जो कोई मुमुक्षु अपने आत्मा को निश्चय से शुद्ध आत्मद्रव्य मानकर व राग-द्वेष त्याग कर अपने निज शुद्ध स्वभाव में मगन हो जाता है वह स्वयं सिद्ध हो जाता है। ऐसे अनेक भाव साधक को होते हैं परंत अब इन अहं भावों से हटकर शुद्धोपयोग की साधना करना ही इष्ट हितकारी है, इसी से सिद्धपद की प्राप्ति होती है। चैतन्य की चैतन्य में परिणमित भावना हो तो वह भावना फलित होती है, मैं ज्ञान मात्र हूं ऐसी अंतर सावधानी जागृति का स्वरूप है। आत्मा का स्वभाव त्रैकालिक परम पारिणामिक भाव रूप है, उस स्वभाव को पकड़ने से 器卷卷卷卷 地市市章年年地點 15-5-15-30-52E-ME-- २८७
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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