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** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
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जिसने ऐसे अपने स्व सत्ता स्वरूप को जाना कि मैं तो एक ज्ञायक * स्वभावी ज्ञान मात्र चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हूँ, उसके तीनों कर्म ही * निर्जरित हो जाते हैं। ज्ञानी अपने आत्म स्वभाव को ठीक-ठीक जानता है 32 इसलिये रागादि भावों को कभी अपना नहीं मानता, वहाँ ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म रहते ही नहीं हैं।
ज्ञानी विचारता है कि मैं तो ज्ञान मात्र, चैतन्य तत्व, सर्वकर्मादि से रहित शुद्धात्मा हूँ , इसके अतिरिक्त कोई पर द्रव्य या परभाव मेरा नहीं है, न मैं किसी का सम्बंधी हूँ । जहाँ ऐसे स्व स्वरूप की सत्ता जाग्रत होती है, उसका सांसारिक बंधनों से बंधन तीन लोक में कहीं भी नहीं हो सकता।
अनादि अनंत ऐसा जो एक निज शुद्ध चैतन्य स्वरूप उसके स्वसन्मुख होकर आराधन करना ही सब कर्म कलंक से मुक्त, परमात्मा होने का सच्चा उपाय है।
४२. विरयं भाव, ४३. तिक्तंतु भावविरयं संसार सुभावं, विरयंतो कम्म तिविहिजोएन। तिक्ततु कम्म तिविह, तिक्ततो असुह कम्म विलयंति॥५१८॥
अन्वयार्थ - (विरयं संसार सुभावं) संसार स्वभाव से विरक्त होने के भाव हैं (विरयंतो कम्म तिविहि जोएन) तो तीनों प्रकार के कर्मों के योग से विरक्त रहो अर्थात् कर्मोदय से जुड़ो ही मत, अपने स्वभाव में रहो (तिक्तंतु कम्म तिविह) तीनों प्रकार के कर्मों को त्यागना, छोड़ना चाहते हो (तिक्तंतो असुह कम्म विलयंति) तो यह शुभाशुभ भावों को छोड़ दो, इससे सारे कर्म विला जाते हैं।
विशेषार्थ-४२. विरयं भाव-(विरक्त होने, छूटने के भाव) संसार स्वभाव अर्थात् पर पर्याय के सम्बंध से विरक्त रहने के भाव हैं तो तीनों प्रकार के कर्म- द्रव्यकर्म, भाव कर्म, नोकर्म के उदय से जुड़ो ही मत, अपने वीतराग भाव में रहो।
४३. तिक्तंतु भाव-(त्यागने, छोड़ने के भाव) तीनों प्रकार के कर्मों को छोड़ना चाहते हो तो यह शुभाशुभ भावों को छोड़ दो, अपने शुद्धोपयोग * में स्थित रहो इससे सारे कर्म विला जाते हैं।
आत्मा का मनन निश्चिन्त होने पर ही होता है इसलिये गृहस्थी का
गाथा - ५१८,५१९%AK-HAKKHKA त्याग जरूरी है। गृहस्थ में व्यवहार में पैसा कमाना, काम भोग करना,नाते रिश्तेदारी आदिकायों में मन, वचन, काय चंचल व राग-द्वेष से पूर्ण आकुलित रहते हैं व पंचेन्द्रियों के भोगों की लालसा बनी रहती है, यही संसार स्वभाव है। इससे विरक्त होना चाहते हो तो वीतरागी निर्ग्रन्थ साधु पद धारण करो। तब ही सर्व चिंताओं से रहित व सर्व संकल्प-विकल्प से रहित अपने आत्मा के शुद्ध स्वभाव का मनन होगा। इसी से तीनों प्रकार के कर्मों से छूट जाओगे।
निर्वाण का साक्षात् उपाय निर्ग्रन्थ वीतराग साधु पद ही है। इसी पद को धारण करके सर्व ही तीर्थकर व महात्माओं ने उक्त प्रकार से आत्मध्यान करके मोक्षपद प्राप्त किया है। इसके लिये सर्व चिंताओं से रहित एकाकी होना जरूरी है।
आत्मा का अनादिकाल से पुद्गल कर्मों से संयोग होने पर भी यह उससे बिल्कुल भिन्न निराला है, यह शुद्ध चैतन्य मूर्ति है। न तो कर्मों का, न शरीरादि का, न रागादि भावकर्मों का कोई सम्बंध इस आत्मा से है,न अन्य आत्माओं से कोई सम्बंध है। हर एक आत्मा की सत्ता निराली है, मैं सदा एकाकी हूँ व रहूँगा, ऐसी एकत्व की भावना भाने से तीनों प्रकार के कर्म विला जाते हैं।
जैसे-कोई बंधन में बंधा है, वह बंध की चिन्ता किया करे तो चिंता मात्र से वह बंध से नहीं छूट सकता, वैसे ही कोई जीव यह चिंता करे कि यह कर्मबंध है, कर्म से मुक्त होना है, इस चिंता से वह कर्म से मुक्त नहीं होगा। जैसे-बंधन से बंधा पुरुष बंध को काटकर ही बंध से छूटेगा, वैसे ही भव्य जीव बंध को छेद करके ही मुक्त होगा। बंध के छेद का उपाय एक स्वानुभव रूप शुद्धोपयोग ही है।
धर्मात्मा को अपना रत्नत्रय स्वरूप आत्मा ही परम प्रिय है, संसार सम्बंधी दूसरा कुछ भी प्रिय नहीं है। जिस प्रकार गाय को अपने बछड़े के प्रति तथा बालक को अपनी माता के प्रति कैसा प्रेम होता है, उसी प्रकार धर्मात्मा साधक को अपने रत्नत्रय स्वभाव रूप मोक्षमार्ग के प्रति अभेद बुद्धि से परम वात्सल्य होता है।
४४. विन्यान भाव,४५. अनंत भावविन्यान न्यान जुत्तं, विन्यानं न्यान कम्म विपनं च। अनन्त चतुस्टय सहिय, अनन्ताएनन्त दिस्टिममलंच॥५१९॥
अन्वयार्थ - (विन्यान न्यान जुत्तं) विज्ञान के ज्ञान सहित हो रहे हो ।
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來來來來來來