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________________ HE * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-५१६,५१७*********-*३८. इस्टं भाव, ३९. गंजंतु भाव स्व सन्मुख दृष्टि रहने में ही मुक्ति है और बहिर्मखी दृष्टि होने से जो तीनों इस्टं संजोय दिस्टं, इस्टाए इस्ट नंत दिस्टं च । प्रकार के कर्म- द्रव्य कर्म, भावकर्म,नोकर्म के भाव आते हैं वे सब पराश्रित गंजंतु कम्म तिविहं, गंजंतु कम्म भाव उववन्न ॥५१६॥ होने से बंध भाव हैं। शुद्धोपयोग होने से तीनों प्रकार के कर्म क्षय होते हैं यही तुम्हारा शूरवीरपना है, पुरुषार्थ है। ऐसे गरजो कि अब कर्मों के भाव ही न अन्वयार्थ - (इस्टं संजोय दिस्टं) हितकारी दृष्टि को संजो रहे हो आयें। (इस्टाए इस्ट नंत दिस्टं च) इष्ट तो अनंत चतुष्टयमयी शुद्ध स्वभाव है उसे ४०. दमनं भाव,४१. गलतु भावदेखो यही इष्ट है (गंजंतु कम्म तिविहं) तीनों प्रकार के कर्मों पर गरज रहे हो, क्रोधित हो रहे हो (गंजंतु कम्म भाव उववन्न) जिन भावों से कर्म पैदा होते हैं दमनं कम्म सहावं, दमनाए नो कम्म दव्व कम्मेन । उन भावों पर ही गरजो अर्थात् अब शुभाशुभ भावों को मत देखो, अपने शुद्ध गलंतु परिनाम अभावं, गलयंति मिच्छ कम्म विलयंति॥५१७॥ स्वभाव, शुद्धोपयोग रूप रहो तो तीनों प्रकार के कर्म ही क्षय हो जायेंगे। अन्वयार्थ - (दमनं कम्म सहावं) कर्मों के स्वभाव का दमन करना विशेषार्थ-३८. इस्ट भाव-(इष्ट, प्रिय, हितकारी भाव) अपनी ॐ चाहते हो (दमनाए नो कम्म दव्व कम्मेन) तो भाव कर्मों को दमन करने से नो दृष्टि को संजो रहे हो, इसे इष्ट हितकारी मान रहे हो परंतु इष्ट तो अपना अनंत कर्म और द्रव्य कर्म अपने आप क्षय हो जायेंगे (गलंतु परिनाम अभावं) चतुष्टयमयी शुद्ध स्वभाव है उसे देखो, वही इष्ट हितकारी है । अब दृष्टि का क्षणभंगुर मिथ्या भाव, जो टिकने वाला नहीं है, अभाव रूप है उनको गलाना लक्ष्य और भेद भी न रहे ऐसा पुरुषार्थ करो। चाहते हो (गलयंति मिच्छ कम्म विलयंति) तो मिथ्यात्व भाव को गला दो ३९.गजंत भाव- (गरजने, क्रोधित होने के भाव) कर्मों पर क्रोधित इससे सब कर्म ही विला जायेंगे। हो रहे हो, गरज रहे हो, यह तीनों कर्म- द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नोकर्म तो विशेषार्थ-४०. दमनं भाव-(दमन, क्षय करने के भाव) कर्मों के जड़ हैं, क्षय हो जाने वाले हैं। जिन भावों से कर्म पैदा होते हैं, उन शुभाशुभ स्वभाव का दमन, क्षय करना चाहते हो तो भाव कर्मों का दमन करो, इससे भावों से ही अपनी दृष्टि हटाओ, अपने शुद्ध स्वभावमय रहो तो तीनों प्रकार ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और शरीरादि नोकर्म अपने आप क्षय हो जायेंगे। के कर्म ही विला जायेंगे, यही सही गरजना है। रागादि भावकर्म ही संसार परिभ्रमण कर्मबंध का मूल बीज है, इससे ही भीतर आत्मा पूर्णानंद का नाथ, अनंत चतुष्टय का धारी है. उसकी ज्ञानावरणादि आठों द्रव्य कर्म का बंध होता है, इसी से शरीरादि नोकर्म का जिसे दृष्टि हुई है उसे वस्तु अंतर में परिपूर्ण है ऐसा अनुभव होता है, यही इष्ट बंध होता है। बीज को जलाने, क्षय कर देने से कर्म व शरीर दोनों ही न हितकारी है। दृष्टि को पलटना, संजोना, इधर-उधर लगाना यह इष्ट नहीं रहेंगे। है। विकार जीव की पर्याय में ही होता है, उस अपेक्षा से तो उसे जीव का ४१. गलंतु भाव - (गलाने का भाव) जो परिणाम अभाव रूप हैं जानना परंतु जीव का स्वभाव विकारमय नहीं है, जीव का स्वभाव तो विकार अर्थात् सदैव टिकने वाले नहीं हैं, क्षणभंगुर नाशवान हैं, इन्हें गलाना चाहते रहित है। इस प्रकार स्वभाव दृष्टि से विकार जीव का नहीं है परंतु पुद्गल हो तो अपने मिथ्यात्व भाव को गलाओ क्योंकि जब तक पर पर्याय कर्मादि कर्मादि के लक्ष्य से होता है इसलिये वह पुद्गल का है ऐसा जानना । ज्ञान, की सत्ता मान रहे हो तब तक मिथ्यात्व भाव है। अपनी स्व सत्ता में पर का * दर्शन स्वभाव मात्र अभेद निज तत्त्व की दृष्टि करने पर उसमें नव तत्त्व रूप अस्तित्व ही नहीं है फिर पर की सत्ता मानना ही मिथ्यात्व है, इसे गलाओ तो *परिणमन तो है नहीं। चेतना स्वभाव मात्र में गुणभेद भी नहीं है अत: सारे कर्म विला जाते हैं। पर में अहं बुद्धि यह मिथ्यात्व भाव है, इसी मिथ्यात्व । दृष्टि और स्वभाव का भेद ही न रहे ऐसा पुरुषार्थ करो, वही शुद्धोपयोग इष्ट के दूर होने पर व सम्यक्त्व के प्रगट होने पर सब कर्म विला जाते हैं। * हितकारी है। रागादि भाव कर्म पुद्गल हैं, उसके उदय से आत्मा में राग भाव होता परावलंबी दृष्टि वह बंध भाव है और स्वाश्रय दृष्टि ही मुक्ति का भाव है। .. है, यह कर्मकृत विकार है, आत्म स्वभाव नहीं है, आत्मा तो मात्र ज्ञायक है। ************ KAKKAR
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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