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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
स्वभाव की साधना होती है। ३५. नितंति भाव
(हमेशा अपने में मगन रहने, नृत्य करने के भाव) अपने शाश्वत स्वरूप में मगन रहना चाहते हो तो ममल स्वभाव में मगन रहो, इसी में नृत्य करो तो सारे कर्म क्षय हो जाते हैं।
मुमुक्षु साधक को पंचज्ञान और परमेष्ठी पद की साधना द्वारा निर्ग्रन्थ वीतराग, साधुपद ही सकल आगम का सार है, सकल जगत में उत्कृष्ट है, अत्यंत शुद्ध है। अमृत, जीवन्मुक्ति और परम मुक्ति का मार्ग है। इस प्रकार तत्त्वश्रद्धा को अंत:करण में समाविष्ट करके प्रयोजनीय शुद्ध स्वभाव की साधना करना चाहिये । इसके लिये दोषों का त्याग और गुणों का प्रगटपना, विनय, भक्ति द्वारा पुष्ट करना चाहिये। शुद्ध स्वभाव की साधना व्रती-अव्रती दशा में नहीं होती, इसके लिये महाव्रती साधुपद आवश्यक है। पंच ज्ञान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान की शुद्धि पूर्वक अवधिज्ञान, मनः पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान की साधना उसका लक्ष्य रहना चाहिये तथा अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु यह पंच परमेष्ठी पद की साधना करना चाहिये तभी शुद्ध स्वभाव की साधना होती है।
मोक्ष के लिये साधन तो परम ज्ञान ही है जो कर्म के करने में स्वामित्व रूप कर्तृत्व से रहित है। जब तक अशुद्ध परिणमन है तब तक जीव का विभावरूप परिणमन है । संसार का परित्याग करके मुनिपद धारण करने का एक मात्र उद्देश्य शुद्ध आत्मा की उपलब्धि है उसे ही मोक्ष कहते हैं ।
जिसे सम्यक्दर्शन प्रगट होने से अपने ज्ञानानंद स्वभाव पर दृष्टि आई है। ज्ञान पूर्वक जिसने वस्तु स्वरूप जाना है वह साधक अपने शाश्वत स्वरूप में मगन रहता है। स्वयं ज्ञान के रसास्वाद में विभोर होकर नृत्य करता है । उसके इस कार्य से उसे ज्ञानभाव के कारण नवीन कर्मों का संवर होता है तथा पूर्व बद्ध कर्म उदय में आकर बिना फल दिये ही निर्जरा को प्राप्त हो जाते हैं। ३६. सुखं भाव, ३७ अवयास भाव
सु च परम सुखं सुद्धार्थ परम भाव मम च ।
अवयास नंतनंत, अवयासं संसार सरनि मुक्तं च ।। ५१५ ।। अन्वयार्थ (सुद्धं च परम सुद्धं) परम शुद्ध स्वभाव को सोध रहे हो, शुद्ध कर रहे हो ( सुद्धायं परम भाव ममलं च) मैं ममल स्वभावी परम
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गाथा ५१५ *---*-*-*-*
पारिणामिक भाव वाला हूँ इस सत् को स्वीकार कर लो, यही सोधना है ( अवयास नंतनंतं) बार-बार अभ्यास कर रहे हो ( अवयासं संसार सरनि मुक्तं च) अभ्यास नहीं स्वभाव में लीन हो जाओ, जिससे यह संसार का परिभ्रमण ही छूट जाये ।
विशेषार्थ - ३६. सुद्धं भाव (सोधने, शुद्ध करने के भाव ) शुद्ध स्वभाव को सोध रहे हो, शुद्ध कर रहे हो । जब अपना परम पारिणामिक भाव, ममल स्वभाव, परम शुद्ध है ही फिर उसमें सोधना, शुद्ध क्या करना है ? मैं परम पारिणामिक भाव मात्र ममल स्वभावी हूँ, यह स्वीकार कर लो यही साधना है । अपना शुद्ध स्वभाव तो त्रिकाल शुद्ध ही है, मान्यता में ही अशुद्धि है | शरीरादि कर्म संयोग से अपने को अशुद्ध, संसारी मानते हो, यही भ्रांति अज्ञान जन्य मान्यता बंधन है। मैं परम शुद्ध, परम पारिणामिक भाव मात्र हूँ, ऐसा दृढ श्रद्धान पूर्वक स्वीकार कर लो यही सोधना है, इसी से सब संयोग अपने आप छूट जायेंगे ।
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३७. अवयास भाव ( अभ्यास, ठहरने, लीन होने के भाव ) बार-बार स्वभाव में ठहरने का अभ्यास कर रहे हो। अपने ममल स्वभाव में लीन हो जाओ, डूब जाओ तो यह संसार का परिभ्रमण छूट जाये ।
शुद्ध चैतन्य ज्ञायक प्रभु की दृष्टि, ज्ञान तथा अनुभव वह साधक दशा है, उससे पूर्ण साध्य दशा प्रगट होगी। साधक दशा है तो निर्मल ज्ञान धारा परंतु वह भी आत्मा का मूल स्वभाव नहीं है क्योंकि वह साधना मय अपूर्ण पर्याय है। प्रभु तू पूर्णानंद का नाथ, सच्चिदानंद, स्वयं परम शुद्ध, ममल स्वभावी परम पारिणामिक भाव मात्र है। पर्याय में रागादि भले हों परंतु वस्तु मूल स्वभाव में ऐसी नहीं है। उस निज पूर्णानंद परमानंद स्वरूप में एकाग्रता रूप साधक दशा की ऐसी साधना कर कि जिससे तेरा साध्य अर्थात् मोक्ष पूर्ण प्रगट हो जाये, यह संसार का परिभ्रमण छूट जाये ।
संयोग का लक्ष्य छोड़ दे और निर्विकल्प एक रूप वस्तु परम पारिणामिक भाव है, उसका आश्रय ले । त्रिकाली धुव ममल स्वभाव ही मैं हूँ ऐसा स्वीकार कर । गुण-गुणी के भेद का भी लक्ष्य छोड़ दे। एक रूप गुणी परम शुद्ध स्वभाव की दृष्टि कर, उसमें दृष्टि लगाने से मुक्ति की प्राप्ति होगी ।
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